हाशिमपुरा अब एक इतिहास है यह 28 साल पहले वाले हाशिमपुरा से अब बिल्कुल अलग है नये मकान बने हैं नये रास्ते बने हैं, मगर जो पुराना है वह है हाशिमपुरा के लोगों को मिले वे जख्म जो आज भी ताजा है बात करो तो पता चलता है कि यह जख्म आज भी बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे 28 साल पहले थे।
वसीम अकरम त्यागी
यहां एक घर है.यह घर है जरीना और उवकी देवरानी हाजरा का हाशिमपुरा के पीड़ितों में यह अक अदद एसा परिवार है जिसने सबसे ज्याद नुकसान देखा है। जरीना की उम्र अब 82 साल है वह उस दिन 22 मई को याद करते हुए कहती है उस दिन मेरा बेटा अलविदा के जुमे की नमाज अदा करके आया था उसे मस्जिद में जगह न मिली होगी तो मुझसे कह रहा था कि अम्मी धूप में खडा होकर नमाज अदा की है मैंने उसे यह कहकर समझाया था कि बेटा अल्लाह इसका ज्यादा सवाब देगा फिर शाम को पीएसी वाले उसे यह कहकर ले गये कि बाहर बडे साब कुछ बात करने के लिये बुला रहे हैं। मालूम नहीं वो कौनसी बातें थी जो आज तक पूरी नहीं हुई।
19 के खिलाफ मुकदमा फिर सब बरी
82 वर्ष की बुजुर्ग जरीना के एक हाथ में बेटे की तस्वीर है और एक हाथ में अपने पति की, वह कभी कैमरे की तरफ देखती है कभी ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीर को. उसने इन तस्वीरों को संजोकर रखा है समय के धुंधलके में उसने इन पर गर्द नही जमने दी मगर सरकार सबूत ही नही बचा पाई 19 के खिलाफ मुकदमा चला और फिर उन 19 को भी बरी कर दिया क्या।
जरीना कहती है कि अदालत के इस फैसले ने उसे फिर से 28 साल पुराने जख्मो को ताजा कर दिया है यह पूछने पर कि कहां कोताही रही जिसकी वजह से आरोपी बरी हो गये ? इस पर जरीना कहती है कि सबकुछ तो दिया था सारे सबूत दिये थे फिर भी वे बरी हो गये, जरीना को हाईकोर्ट से उम्मीदें हैं वह कहती हैं कि जब तक सांस है तब तक इंसाफ पाने के लिये लड़ाई लडूंगी। वह फिर से उन्हीं पुराने दिनों में चली जाती है और कहती है कि यह एसा मौहल्ला है जहां शिक्षा का स्तर बहुत कम है क्योंकि यहां पर मजदूर वर्ग रहता है और हमारे घर में तो कोई भी दसवीं पास नहीं है। वह कहतीं है कि उनके पति जहीर अहमद और बेटा जावेद उस हादिसे का शिकार हुए थे उनकी लाशें तक नहीं मिलीं, दूसरा बेटे को जेल में एसी यातनाऐं दी गईं कि आज भी उसके जख्म हरे हो जाते हैं वह धूप बर्दाश्त नहीं कर सकता, ज्यादा शौर बर्दाश्त नहीं कर सकता, उसने बताया था कि उसके उंगलियों में अंगूठी थी पुलिस वालों ने उससे अंगूठी निकालने के लिये कहा तो वह अंगूठी निकालने लगा मगर इस पर सब्र नहीं हुआ उन्होंने इस तरह उसकी उंगली से अंगूठी को निकाला कि उसकी खाल तक उसके साथ चली गई। इस निर्णय से हम बहुत आहत हैं हमारे घरों में चूल्हे नहीं जले हैं पिछले दो महीने से कहा जा रहा था कि बहुत जल्द हमें इंसाफ मिल जायेगा मगर एसा नहीं हुआ जो हमारे बच्चों के कातिल थे वे सब के सब बरी हो गये। यह इंसाफ नहीं है।
इसी घर में एक और बूढ़ी औरत हाजरा है हाजरा रिश्ते में जरीना की देवरानी है वह कहती है कि मेरे पति को भी पीएसी वालों ने गिरफ्तार किया था जेल में उन्हें यातनाऐं दी गईं यह यातनाओं की वजह ही थी कि वे अब कोई काम नहीं कर सकते 28 साल से वे आये दिन बीमार रहते हैं उन्हें सिर्फ एक ही उम्मीद थी कि उनके भाई जहीर अहमद और भतीजे जावेद के कातिलों को सजा मिलेगी। इन्हीं जख्मों इन्हीं उम्मीदों के सहारे वे जिंदा हैं मगर एसा फैसला आयेगा कि हम इंसाफ से ही महरूम कर दिये जायेंगे यह तो हमने सोचा भी नहीं था। यहीं से कुछ कदम की दूरी पर एक और पीड़ित जमालुद्दीन का घर है जमालुद्दीन के बड़े बेटे कमरुद्दीन में उन्हीं 42 लोगों में शामिल हैं जो वापस नहीं आये।
दर्द हरा है अभी
हाशिमपुरा की तंग गलियों में घूमते वक्त एसा घर ढ़ूंढना बहुत मुश्किल है जिसने 1987 में पुलिस बर्बरियत को न सहा हो। जमालुजद्दीन के घर के सामने ही हाजी यासीन का मकान है हाजी यासीन उन दिनों आईटीओ में हुआ करते थे मगर पीएसी ने उन्हें भी नहीं छोड़ा वह उन्हें भी अपने साथ ले गये और मुरादनगर नहर पर ले जाकर गोलियों से भून दिया। हाजी यासीन के बड़े बेटे इजहार अहमद बताते हैं कि इस हादिसे ने उनकी जिंदगी ही बदल दी उनकी मां इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाईं उनकी तबीयत खराब रहने लगी थी जिसकी वजह से कई बार उन्हें हार्ट अटैक आया और अंततः 1997 को न्याय की उम्मीद लिये कब्र में सो गईं। इजहार अहमद अपने बेटे की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि मेरे इस बेटे की उम्र उस वक्त 2 महीने रही होगी यह घर खुशियों का ठिकाना हुआ करता था मगर पिता की मौत के बाद सबकुछ बदल गया हम न्याय की उम्मीद लिये बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंच चुके हैं निचली अदालत का जो फैसला है उससे हमें गहरा सदमा लगा है। फिर थोड़ी देर खामोश रहने के बाद वे कहते हैं कि आज नई पीढ़ी आ चुकी है मगर हम हैं कि हाशिमपुरा के जख्म लिये बैठे हैं कि न्याय मिलेगा मगर हम हारेंगे नहीं हम हाईकोर्ट जायेंगे और इस कांड के अपराधियों को सजा दिलायेंगे।
यहां हर एक जुबान पर दर्द की दास्तानें हैं पुलिस बर्बरियत की एसी कहानी है जिसे सुनकर जिस्म कांप जाता है, एसी ही एक दास्तान मुस्तकीम अहमद की जिनके छोटे भाई नईम के साथ भी वही हुआ जो हाशिमपुरा के पीड़ितों के साथ हुआ था। मुस्तकीम सरकार पर आरोप लगाते हुए कहते हैं कि सरकार अगर चाहती तो आज हमारी आंखों में बेबसी के आंसू न होते चेहरे पर अंतहीन उदासी न होती मगर सरकार नहीं चाहती कि हमें न्याय मिले। मुस्तकीम का परिवार जिला मेरठ के अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव के रहने वाला है 70 के दशक में यह परिवार गांव से रोजी रोटी के सिलसिले में शहर आया था मगर उसके कुछ साल बाद ही शहर ने उन्हें एसा जख्म दिया जो आज तक ताजा है। मुस्तकीम के छोटे भाई को पीएसी की रायफलों ने मौत की नींद सुला दिया। मुस्तकीम अपने भाई को याद करते हुए माजी में चले जाते हैं और कहते हैं कि मेरे भाई की लाश तक नहीं मिल पाई हमने कपड़ों से पहचान की यह तो हमारे भाई के हैं। फिर किसी तरह आंखों के सैलाब को रोकने की नाकाम कोशिश करते हुए कहते हैं कि हम संतुष्ट थे कि हमें न्याय मिल जायेगा हमारे भाई के कातिलों को अदालत सजा देगी मगर सरकारी की लापरवाही और ढ़ुल मुल रवैय्ये के चलते हम निचली अदालत से न्याय पाने में महरूम रहे। फिर कुछ खामोश रहने के बाद कहते हैं कि हम हाईकोर्ट जायेंगे और तब लड़ेंगे जब तक हमें इंसाफ नहीं मिल जाये। आखिर यही तो एक इंसाफ की उम्मीद है जो हमें जिंदा रखे हुए है।