इन दिनों जितनी सुर्खियों में अरविन्द केजरीवाल हैं  उससे कहीं अधिक सुर्खियों में मीडिया है। मीडिया केजरीवाल को घेरने, नीचा दिखाने में लगा है तो केजरीवाल मीडिया के नकारात्मक रवैये पर उसे घेर रहे हैं.kejriwal

तबस्सुम फातिमा

जब नेपाल को मदद की जरूरत थी, भारतीय मीडिया क्रेडिट ले जाने पर जोर देता रहा। मीडिया का काम खबरों को बेचना रह गया है। और इसके लिए कॉरपोरेट सेक्टर से बड़े बड़े ब्रांड तक, पैसा लगाने को हर समय तैयार रहते हैं। अभी हाल में सलमान खान के जेल जाने को लेकर ऐसा लगता था जैसे मीडिया के पास भारतीय और विश्व राजनीति से ज़्यादा बड़ा काम सलमान पर समाचार और फीचर देना है। नाग नागिनों की कहानी, तांत्रिक बाबाओं की कहानियों से लेकर फिल्मी नायकों तक की चटपटी खबरें देने वाला भारतीय मीडिया जिस तरह अपनी आज़ादी का दुरुपयोग कर रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है।

सवाल यह है

सवाल है, यह मीडिया का ट्रॉयल जनता के सामने क्यों नहीं होना चाहिए? मीडिया को यह गलतफहमी हो गई है कि किसी व्यक्ति या पार्टी को बुलंदी पर पहुंचाने और गिराने में उसकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। और यह सबूत मीडिया पिछले लोकसभा चुनाव 2014 में दे चुका है। आम आदमी भी इस सच से वाकिफ है कि खरीदो—फरोखत की राजनीति में कौन सा टीवी चौनल बिकाऊ भूमिका में सबसे आगे है और किस टीवी चौनल की कोशिशें जारी हैं कि वह सत्ताधारी पार्टी और उनके वरिष्ठ अधिकारियों को खुश किया जा सके।
भाजपा और मोदी सरकार का आपसी गृहयुद्ध मीडिया घरानों के लिए आकर्षण का केन्द्र नहीं है। केन्द्र आम आदमी पार्टी है, और आप के रचनात्मक कार्यों को भी नजरअंदाज करता हुआ मीडिया कभी केजरीवाल की रैली में हुई आत्महत्या के मुद्दे को उठाता है और कभी कुमार विश्वास विवाद को लेकर इन्सानी भावनाओं से खेलने की कोशिश करता है। लेकिन मीडिया दबाव की राजनीति में आप पर कीचड़ उछालने में किसी प्रकार की कोताही बरतने को तैयार नहीं। इन सभी घटनाओं पर नजर डालें तो मीडिया अपनी स्वतंत्रता का जिस तरह गलत इस्तेमाल कर रहा है, उसे रोका जाना बहुत जरूरी है।

  इंदिरा, काटजू और फिर केजरीवाल

केजरीवाल ने मीडिया के नाकारात्मक रवैये पर बाजाब्ता सर्कुल जारी किया है कि उनके अफसर मीडिया द्वारा सरकार की छवि खराब करने वाली खबरों को मॉनिटर करे. एक साल पहले जस्टिस मार्कंडे काटजू ने भी कहा था ’’कि मीडिया पर कानूनी अंकुश लगाया जाना चाहिए, अन्यथा इस देश में किसी की भी इज्जत सुरक्षित नहीं रहेगी।’’ कल और आज की पत्रकारिता में आये बड़े परिवर्तन और बड़े कारोबार के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो यह पूंजीवाद और कॉर्पोरेट घराने। विडंबना यह है कि ज्यादातर अखबारों या टीवी चौनलस पर इन्हीं कॉर्पोरेट घरानों का कब्ज़ा है। और वास्तव में मीडिया उन्हीं खबरों को दिखाने के लिए बाध्य है जो कॉरर्पोरेट घरानों के मालिक चाहते हैं। एक समय था जब प्रेस को मिली आजादी से परेशान होकर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ’डफयूज़न ऑफ प्रेस ऑनरशिप एक्ट’ के नाम से एक बिल लेकर आई थीं। इस विधेयक के अनुसार ’’अखबार के मालिक किसी अन्य उघोग के मालिक नहीं हो सकते।’’ इस विधेयक का विरोध किया गया और विरोध में औघोगिक घराने खुलकर सामने आ गए थे। मीडिया के नए किरदार में अब यही औघोगिक घराने वही समाचार बेच रहे हैं जिससे उन्हें आर्थिक लाभ मिले और सरकार का समर्थन उनके हिस्से में रहे।

 पत्रकारिता का खून

विडंबना यह भी है कि कॉर्पोरेट घरानों और बड़े उघोगपतियों ने इस पत्रकारिता संस्कृति का खून कर दिया है जहां एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में मानव मूल्यों को बचाने की चिंता ही उमदा पत्रकारिता की तारीफ हुआ करती थी। दैनिक समाचार पत्र पढ़ने वाले और टीवी चौनल्स पर नियमित रूप से खबरों को देखने सुनने वाले भी इस सच से परिचित थे कि वह जो कुछ पढ़ या देख रहे हैं, उनमें किसी विश्वसनीय संपादक का नहीं बल्कि कॉर्पोरेट मालिकों का हाथ है। अधिकांश संपादक को उन्हीं के इशारों पर चलना होता है। जरा सा भी विद्रोह या विरोध से संपादक की नौकरी खतरे में पड़ सकती है।
मुश्किल यह है कि ऐसे लोगों के लिए दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी की जबरदस्त जीत को आसानी से हजम करना आसान नहीं। और इसीलिए ’आप’ पर हमले इतने गंभीर हो गए कि घबराये हुए केजरीवाल को यह बयान देने की जरूरत पेश आ गई कि जनता के बीच टीवी चौनल्स का ट्रॉयल होना चाहिए। यह केवल एक बयान नहीं था बल्कि इस गंभीर बयान के पीछे अरविंद केजरीवाल का लक्ष्य था कि गिरावट वाली भारतीय संस्कृति को बचाने की कोशिश होनी चाहिए।

पॉप संगीत, बर्बर संस्कृति को प्रतिबिंबित करने वाले सच का सामना जैसे कार्यक्रम, और फिल्मों पर आधारित सेक्स और नग्नता को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम नई पीढ़ी के बच्चों पर न केवल बुरा असर डाल रहे हैं बल्कि गुमराह कर रहे हैं। आश्रम के किस्सों से गंदी राजनीति तक यह मीडिया सेक्स स्वाद को बढ़ावा देने का काम कर रहा है। और इसलिए मीडिया के इस चेहरे को बेनकाब होना चाहिए जहां औघोगिक घरानों और कॉरपोरेट सेक्टर के मालिकों के दबाव में ’रिन साबुन’ की तरह यह बताने की कोशिश हो रही है कि सबसे साफ कॉलर (व्हाइट कॉलर) तो मोदी सरकार का है और अन्य राजनीतिक पार्टियां खासतौर ’आप’ गैर जिम्मेदार और ऐसी पार्टी है जिसे मानवीय भावनाओं से कोई सरोकार नहीं है। यह मीडिया है जो सांप्रदायिक और भड़काऊ बयान देने वालों को भी स्क्रीन पर हीरो बनाकर पेश करता है। निंदा करना तो दूर, कई बार यह एहसास भी होता है कि उनके भड़काऊ बयानों पर मीडिया भी स्वाद लेने का काम कर रहा है।

 पब्लिक ट्रॉयल 

एक गरीब किसान की आत्महत्या, नेपाल भूकंप जैसे हादसों में मीडिया घरानों की गैर जिम्मेदाराना हरकतों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अब मीडिया का पब्लिक ट्रॉयल बहुत जरूरी है। क्योंकि जब तक अखबार और टीवी चौनल्स औघोगिक घरानों, कॉरपोरेट सेक्टर और अम्बानियों, अडानियों के हाथ में रहेंगे, भारत सुरक्षित नहीं है। इसलिए भारतीय जनता भी सुरक्षित नहीं। पत्रकारिता का हमारे दैनिक सार्वजनिक जीवन से संबंध रहा है। लेकिन इन औघोगिक घरानों ने मानक पत्रकारिता के मूल्य बिखेर कर उस पत्रकारिता को बढ़ावा देने का सिलसिला शुरू किया है, जहां हमारे जीवन दांव पर लगे हैं। टीवी चौनलस वाले कुछ भी कहें, लेकिन अब साम्प्रदायिक और सामान्य मानवीय भावनाओं की बोली लगाने वाले मीडिया पर कानून लाने और दबाव बनाने का समय आ चुका है।
तबस्सुम फातमा से   [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.

By Editor

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