मलियाना और हाशिमपुरा में 1987 में जो कुछ भी हुआ, उसकी यादें अभी भी ताज़ा हैं। इससे पहले कई ऐसे दंगे हुए थे, जिसने इस बात को पुख्ता किया था कि पुलिस भी दंगाइयों के साथ मिली होती है। दंगा प्रभावित मुसलमानों को एक तरपफ दंगाईयों का भय होता है तो दूसरी ओर सुरक्षा देने वाली पुलिस भी मुसलमानों के विरोध में नजर आती है। पी.ए.सी के जवानों ने हाशिमपुरा और मलियाना में जो कुछ किया, उसने कानून, न्याय और पुलिस की प्रतिष्ठा को तो आहत किया ही, साथ ही मुसलमानों के दिलों में यह बात भी बैठा दी कि सांप्रदायिक दंगों में जीवन बचाने के लिए कम से कम वह पुलिस से भीख नहीं मांग सकते।Hashimpura-massacre

 

तबस्सुम फातिमा

 

 

 

 

हाशिमपुरा और मलियाना दंगों पर 28 साल बाद यूपी सरकार का जो पफैसला आया है,  वह उम्मीदों के खिलाफ नहीं है। पीडि़तों के परिवार वाले भले इस फैसले पर शोक करें, मगर भारत के 68 वर्ष के इतिहास में मुसलमानों को इतने घाव मिले हैं कि मुसलमान आज़ादी के बाद से अब तक किसी भी सरकार से किसी न्याय की उम्मीद नहीं कर सकता। बाबरी मस्जिद के फैसले समय यही कांग्रेस थी। और फैसले के एक दिन पहले तक सरकार मुसलमानों को वादों और उम्मीदों का लॉली पोप देती रही कि फैसला उनके पक्ष में आएगा। लेकिन एक दिन बाद ही बाबरी मस्जिद के फैसले ने देश के सभी मुसलमानों की उम्मीदों का खून कर दिया था। हाशिमपुरा और मलियाना सांप्रदायिक दंगों का मामला भी बाबरी मस्जिद से जुड़ा है। उस समय प्रधनमंत्री राजीव गांधी ने बाबरी मस्जिद का ताला खोल कर न केवल देश में बढ़ती सांप्रदायिकता को हवा दी थी बल्कि आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद और कमजोर भाजपा को मजबूत करने में भी मदद दी थी और इसी के साथ लाल कृष्ण आडवाणी के मुस्लिम विरोधी रथ ने बाबरी मस्जिद शहादत का वातावरण तैयार कर, हिंदू व मुसलमानों को दो भागों में बांटने का काम किया था। आज भाजपा सत्ता में बहुमत के साथ है, तो इसके लिए राजीव गांधी की नादानी या सोची समझी परियोजना की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

 

 

 

गुजरात से कम नहीं हाशिमपुरा

 

हाशिमपुरा में जो कुछ हुआ, वह गुजरात के दंगों से कम नहीं था। गुजरात के नरसंहार के लिए मोदी और मोदी मंत्रिमंडल की सच्चाई सामने आई तो हाशिमपुरा के लिए पीएसी के जवान सामने थे। सरकार के आंकड़े इसलिए भी मायने नहीं रखते कि उस समय हाशिमपुरा और मलियाना की गलियां खून में रंग गई थीं और जो अत्याचार पीएसी के जवानों ने किया, इस उदाहरण के लिए हिटलर और नाजियों के उदाहरण भी शायद कम पड़ जाएं। हज़ारों चश्मदीद गवाह थे। मासूम बेगुनाह मुसलमानों को जिस तरह ट्रक में भरभर कर संरक्षण देने के बहाने से ले जाया गया और बेरहमी से बहीमाना तरीके से उनकी हत्या की गई, इसके लिए 28 साल इंतजार करने की जरूरत ही क्या थी? फैसला अगर 28 साल बाद आया तो एक ऐसी सरकार यूपी में थी जो मुसलमानों का वोट लेकर सत्ता में आई थी। और जिसपर धर्मनिरपेक्षता कर तमगा लगा था। लेकिन विचार करें और मुलायम की अब तक की राजनीति का ग्राफ देखें तो इस सच से पर्दा उठ जाता है कि यह सरकार कभी मुसलमानों के साथ नहीं रही। हां मुलायम और अखिलेश सरकार ने मुसलमानों को सब्ज़बाग जरूर दिखाये मगर हर वह काम किया, जो मुसलमानों के खिलाफ जाता था। अखिलेश सरकार के तीन वर्षों में 200 से अधिक दंगे हुए। हाशिमपुरा पर सबूत न होने की जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश सरकार की कमज़ोरियों को सामने लाता है।

 

 

 

 

सभी आरोपी रिहा

हाशिमपुरा के आरोपी आसानी से बरी हो जाना मोदी सरकार के लिए कोई नई बात नहीं है। गुजरात नृसंहार के एक एक करके सारे आरोपी रिहा किए जा चुके हैं। और अब यूपी सरकार की कमज़ोरियों के कारण हाशिमपुरा के सभी आरोपियों को बरी किया गया तो यह मानकर चलिए कि यह तो होना ही था। साम्प्रदायिक शक्तियों के मुस्लिम विरोधी अपमानजनक बयानों ने पहले से ही मुसलमानों की ज़मीन तंग कर दी है। आरएसएस जिस मुस्लिम विरोधी एजेंडे पर काम कर रहा है,  उसमें मुसलमानों के लिए किसी भी न्याय की उम्मीद बाकी नहीं बची है। केवल पूर्व आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय की किताब 22 हाशिमपुरा इन सबूतों के लिए पर्याप्त है। किताब के कुछ अंश देखें।

‘‘मुझे अब तक याद है कि वीर बहादुर सिंह जैसा जमीनी यथार्थ से जुड़ा नेता बड़ी शिद्दत से यह समझने की कोशिश कर रहा था कि पी.ए.सी इतनी अनुशासनहीन कैसे हो गई थी कि ढेरों निर्दाष लोगों को पकड़ कर ले गई और नृशंसतम तरीके से उन्हें मार डाला?  पुलिस महानिदेशक दयाशंकर भटनागर उन्हें यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि पी.ए.सी का जरूरत से ज़्यादा इस्तेमाल और ट्रेनिंग की पूरी तरह उपेक्षा इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है।’’

 

 

विभूति नारायण राय ने सबूत और गवाह के आधर पर पूरी तरह से पीएसी के जवानों को इस अविश्वसनीय कार्य के लिए जिम्मेदार मानते हैं। आश्चर्य इस बात पर भी है कि मुकदमा चलने के दौरान भी यह आरोपी अपनी डियूटी करते रहे। सरकार और न्याय से मुसलमानों की उम्मीद एक बार फिर खत्म हुई है। 22 हाशिमपुरा से एक और उदहारण देखिए।

‘‘अगर कोई इन्कवायरी डिटेल को गौर से देखे तो यह साफ लगता है कि इन्कवायरी इस तरह की गई है ताकि पीएसी के 19 नौजवानों के मेरठ के हाशिमपुरा के 42  मुसलमानों को कत्ल करने के इल्जाम से कैसे बरी किया जाये।’’

 

‘‘मुझे लगने लगा कि यदि मैंने गोपनीयता की बर्तानवी चादर अपने सर से नहीं उतार फेंकी तो हाशिमपुरा किसी अंधेरी सुरंग में समा जाएगा और देश में आजादी के बाद की सबसे बड़ी कस्टोडियल किलिंग का राज जनता के पास पहुंचने के पहले ही यह बस्ता खामोशी में दफन हो जाएगा।’’

सच यह है कि यह पूरा मामला आरोपियों के बरी हो जाने से ठंडे बस्ते में जा चुका है। मुसलमानों के घाव हरे हैं लेकिन इस मामले में हाईकोर्ट में अपील करने को लेकर भी न्याय पर छाया कोहरा खत्म होने का नाम नहीं लेते। बस एक ही सवाल है, इस हिंसक और सांप्रदायिक माहौल में मुसलमान अपने लिए किसी न्याय की उम्मीद करते ही क्यों हैं?

By Editor

Comments are closed.


Notice: ob_end_flush(): Failed to send buffer of zlib output compression (0) in /home/naukarshahi/public_html/wp-includes/functions.php on line 5427