मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को हारने के लिए विपक्षी दलों द्वारा राष्ट्रपति उम्मीवार बनाये जाने का बयान देकर राजनीति में नया विवाद खड़ा कर दिया है। राष्ट्रपति चुनाव में किसी उम्मीदवार का समर्थन करना नीतीश कुमार और उनकी पार्टी का अधिकार है। सहयोगी पार्टी उनसे अपने पक्ष में खड़ा होने का आग्रह कर सकती है, लेकिन बाध्य नहीं कर सकती है।
वीरेंद्र यादव
लेकिन नीतीश कुमार ने विपक्षी उम्मीवार खड़ा करने पर ही सवाल उठा कर चुनाव और राजनीतिक प्रक्रिया को ही नकार दिया है। यह सर्वविदित है कि राष्ट्रपति चुनाव में मीरा कुमार की हार तय है। यह आंकड़ों का खेल है और आंकड़े सार्वजनिक हैं। इसमें नीतीश ने कोई नया खुलासा नहीं किया है। लेकिन चुनाव प्रक्रिया पर सवाल खड़ा करना लोकतंत्र के लिए घातक हो सकता है।
नीतीश 1977 और 1980 में विधान सभा चुनाव हार चुके हैं। वह भी निर्दलीय उम्मीदवार भोला सिंह से। 1985 में पहली बार विधान सभा के लिए निर्वाचित हुए। वे 2004 में भी बाढ़ लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। उनके बयान के आलोक में यह सवाल उठता है कि उन्होंने चुनाव में हार की रणनीति बनायी थी कि चुनाव हार गये थे। जबकि 2004 में उन्होंने बाढ़ में हार सुनिश्चित मानकर ही नालंदा से भी चुनाव लड़ा था।
2000 के विधान सभा चुनाव के बाद भाजपा से लगभग आधी सीट लाकर भी समता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में नीतीश कुमार ने बिहार का मुख्यमंत्री का पद संभाला था। उस सरकार की विदाई कुछ दिनों में तय थी और सातवें दिन सरकार की विदाई भी हो गयी। डूबने वाली नाव पर सत्ता की सवारी कर रहे नीतीश कुमार क्या 2000 में मैदान छोड़कर भागने के लिए सीएम बने थे। अभी पिछले महीने दिल्ली महानगर पालिका चुनाव में जदयू ने उम्मीदवार खड़े किये थे। क्या जदयू ने चुनाव हारने की रणनीति के तहत उम्मीदवार उतारे थे।
नीतीश कुमार के बयान से चुनाव प्रक्रिया की गंभीरता और औचित्य पर सवाल उठ गया है। नीतीश के बयान से गठबंधन सरकार को बिहार में कोई खतरा नहीं है। लेकिन उनका बयान लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा के लिए जरूर खतरनाक साबित हो सकता है।