अधिवक्ताओं के देशव्यापी विरोध के बाद केंद्र सरकार ने एडवोकेट अमेंडमेंट बिल वापस ले लिया है। इसके बाद विपक्ष का हौसला बढ़ा है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा कि यह निरंकुश मोदी सरकार पर जनता खासकर अधिवक्ताओं की जीत है। केरल के मुख्यमंत्री स्तालीन ने भी इसे जीत बताते हुए कहा कि भाजपा पूरी न्याय प्रक्रिया पर कब्जा करना चाहती है, जो संभव नहीं है। भाजपा ने न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में भी हस्तेक्षेप की कोशिश की है। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने भी अधिवक्ताओं को जीत पर बधाई दी है।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा कि एडवोकेट्स (अमेंडमेंट) बिल को लाकर एक बार फिर से भाजपाई ये दिखाना चाहते थे कि वो अपनी मनमानी किसी पर भी थोप सकते हैं। जोड़-तोड़ या किसी भी तरह से बने या मिले बहुमत का मतलब ये नहीं होता कि आप जिसके लिए बदलाव ला रहे हैं उसीकी उपेक्षा और हानि कर दें। परिवर्तन से प्रभावित होने वाले पक्ष को परिवर्तन की प्रक्रिया में शामिल करना ही लोकतांत्रिक परंपरा है। ऐसे तो पुराने राजा लोग भी अपने मन से शासन करते थे और फ़ैसले ले लेते थे। बहुमत यदि ‘एकाकीमत’ जैसा बनते दिखता है तो वो लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। बदलाव यदि सहमति से होगा तभी सबके लिए लाभकारी होता है, ऐसे बदलाव को ही ‘सुधार’ कहते हैं और संशोधन सुधार के लिए किये जाते हैं, अपनी सत्ता की हनक दिखाने के लिए नहीं।
इंसाफ़ के रक्षकों से ही जो सरकार नाइंसाफ़ी करेगी, उस सरकार की मंशा क्या है ये बात वकीलों की समझदार काउंसिल बख़ूबी समझती है। भाजपा जिस प्रकार अन्याय कर रही है, उससे न्यायपालिका में जनता की गुहार बढ़ती जा रही है, जिससे भाजपा घबरायी हुई है, इसीलिए वो न्यायिक प्रक्रिया को इतना जटिल और अधिवक्ताओं को इतना शक्तिहीन और सीमित कर देना चाहती है कि न तो जनता न्यायलय जाए और न ही वकील इंसाफ़ की लड़ाई में जनता के साथ खड़े हो पायें। झूठे मुकदमे भाजपा की सियासी साज़िश का बड़ा हिस्सा रहे हैं। भाजपा के राज में न्यायिक प्रक्रिया भी राजनीति का शिकार हो गई है।
भाजपा सरकार संशोधन नहीं ‘लगाम’ लेकर आती है लेकिन वो भूल जाती है कि संगठन की एकजुट शक्ति के आगे कोई भी टिक नहीं पाता है, एकता बड़े-बड़े महारथियों का रथ पलट देती है।