Suprem Court को पता था कि Babri Masjid में सदियों तक नमाज पढी गयी, वहां मूर्ति रखना गलत, उसे ध्वंस करना गलत था तो फिर वह भूमि हिंदुओं को कैसे दी गयी.
जब Supreme Court मानता है कि मुसलमान Babri Masjid में सालों से जाते रहे थे, वहाँ मूर्तियाँ रखना ग़लत था, मसजिद को तोड़ना भी ग़लत था, तो आख़िर किस आधार पर कोर्ट ने हिंदुओं के पक्ष में यह फ़ैसला सुना दिया? सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की विसंगतियों और उसकी मजबूरियों के बारे में बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार नीरेंद्र नागर।
नीरेंद्र नागर
अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आ गया। वैसा ही आया जैसा हिंदू पक्ष चाहता था और मुस्लिम पक्ष नहीं चाहता था।
लेकिन यह कहना ग़लत होगा यह निर्णय केंद्र सरकार या किसी पार्टी या संगठन के दबाव में आया है क्योंकि बेंच में जो जज थे, उनके बारे में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता था। ख़ासकर इसलिए भी उन्होंने जजमेंट में जो बातें कही हैं, उनमें से अधिकतर हिंदू पक्ष की दलीलों के ख़िलाफ़ थीं।
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हिंदू पक्ष हमेशा से कहता रहा है कि बाबरी मसजिद राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। कोर्ट ने कहा, भारतीय पुरातत्व सर्वे यानी एएसआई की रिपोर्ट से ऐसा कुछ नहीं साबित होता कि यह मसजिद राम मंदिर या कोई भी मंदिर तोड़कर बनाई गई थी।
कोर्ट ने माना कि मसजिद किसी ख़ाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी। वहाँ किसी टूटे-फूटे मंदिर के अवशेष थे लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि इससे इस ज़मीन पर हिंदू पक्ष का क़ब्ज़ा साबित नहीं होता। यानी कोर्ट ने यह दलील नहीं मानी कि इस ज़मीन पर पहले कोई मंदिर होने के कारण इस भूमि पर हिंदुओं का अधिकार है।
कोर्ट ने यह भी माना कि 1855 से लेकर 16 दिसंबर 1949 तक वहाँ लगातार मुसलमान नमाज़ पढ़ते थे और मसजिद के अंदर यानी उस जगह पर जहाँ रामलला की प्रतिमा रखी गई है, वहाँ मुसलमानों का नियमित प्रवेश था। दूसरे शब्दों में यह परित्यक्त मसजिद नहीं थी और मुसलमानों का उसपर क़ब्ज़ा रहा है।
कोर्ट ने यह भी माना कि 23 दिसंबर 1949 की रात को मसजिद के अंदर मूर्तियाँ रखने की कार्रवाई ग़लत क़दम थी।
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कोर्ट ने 6 दिसंबर 1992 को मसजिद के विध्वंस को भी ग़लत बताया।
कोर्ट ने हिंदू पक्ष की केवल यह दलील मानी कि मसजिद के बाहरी अहाते पर जहाँ राम चबूतरा, सीता रसोई आदि है, वहाँ लगातार हिंदुओं का क़ब्ज़ा रहा। लेकिन यह ऐसी दलील थी जिससे मुसलिम पक्ष ने कभी इनकार नहीं किया।
अब सवाल उठता है कि जब मसजिद बनाने के लिए राम मंदिर तो दूर, कोई भी मंदिर नहीं तोड़ा गया था, उस ज़मीन पर पहले मंदिर के ध्वंसावशेष होने के बावजूद हिंदुओं का ज़मीन पर अधिकार नहीं बनता, जब मुसलमान उस मसजिद में सालों से जाते रहे थे, जब मसजिद में मूर्तियाँ रखना ग़लत था, जब मसजिद को तोड़ना भी ग़लत था, तो आख़िर किस आधार पर कोर्ट ने हिंदुओं के पक्ष में यह फ़ैसला सुना दिया?
जवाब छुपा है 1885-86 के फ़ैसलों में
इसको समझने के लिए हमें आज से कई साल पीछे जाना होगा और 1885-86 में महंत रघुबर दास के मुक़दमे पर दिए गए फ़ैसलों को देखना होगा। मुक़दमा इस बात का था कि मसजिद परिसर में ही बाहरी अहाते में बाईं तरफ़ 17X21 फुट का एक चबूतरा था, जिसे राम चबूतरा कहा जाता था और जहाँ राम की मूर्ति और पत्थर पर चरण उकेरे हुए थे।
इसके ऊपर बाँसों या लकड़ियों का बना एक छोटा-सा तंबू था। महंत रघुबर दास चाहते थे कि वहाँ एक मंदिर बनाया जाए, लेकिन स्थानीय मुसलमानों ने उसका विरोध किया। मामला सब-जज के पास गया जहाँ यह आवेदन ठुकरा दिया गया। महंत ने ज़िला जज के पास अपील की मगर उनकी अपील ठुकरा दी गई। अंतिम अपील अवध के न्यायिक कमिश्नर के पास पहुँची। उन्होंने निचली अदालत के जजों के फ़ैसले को सही ठहराया।
जिला जज ने लिखा – यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाली जगह पर मसजिद बनाई गई लेकिन वह घटना 356 साल पहले हुई थी, और इतने सालों के बाद उसे अनहुआ नहीं किया जा सकता। अब यही किया जा सकता है कि यथास्थिति बरकरार रखी जाए।
क्या कहा था न्यायिक कमिश्नर ने?
जब यह मामला अवध के न्यायिक कमिश्नर के पास आया तो उन्होंने भी ‘आततायी बाबर’ द्वारा मंदिर तोड़े जाने का उल्लेख करते हुए लिखा कि मसजिद परिसर में मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि जहाँ वे मंदिर बनाना चाहते हैं, वह मसजिद के बहुत ही पास है।
यह आलेख मूल रूप से सत्य हिंदी में प्रकाशित हुआ जिसे हमने यहां साभार प्रकाशित किया है