आरक्षण के मैदान में बुरी फंसी भाजपा, उठा नया मुद्दा

मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद से ही भाजपा पिछड़े वर्ग की राजनीति में कूदी। आरक्षण पर अभी वह ठीक से अपनी पीठ थप-थपा भी नहीं पाई कि उठा नया मुद्दा।

कुमार अनिल

मोदी मंत्रिमंडल का पहला विस्तार पिछले जुलाई में हुआ। भाजपा ने 27 ओबीसी मंत्री बनाए जाने का खूब प्रचार किया। जब संसद में पेगासस, महंगाई और किसान आंदोलन पर विपक्ष बहस की मांग कर रहा था तब भाजपा के दिग्गज नेताओं ने कहा कि विपक्ष को पिछड़े वर्ग के मंत्रियों से परेशानी हैं। फिर संसद से दो दिन पहले आरक्षण संसोधन बिल पास हो गया। इससे ओबीसी आरक्षण की सूची बनाने का अधिकार राज्यों को मिल गया। अभी भाजपा खुद को पिछड़ा वर्ग का सबसे बड़ा हितैषी साबित कर भी नहीं पाई कि नया सवाल खड़ा हो गया।

नया सवाल है आरक्षण की 50 फीसदी अधिकतम सीमा (quota cap)। आज राजद ने कहा कि इस अधिकतम सीमा को बढ़ाए बिना आरक्षण सूची बनाने का अधिकार राज्यों को देने का कोई अर्थ नहीं है। इससे पहले देश में जातीय जनगणना का सवाल उठ ही चुका था। इस तरह पिछड़ा वर्ग के राजनीतिक मैदान में क्षेत्रीय दलों को मात देने से पहले ही वह बुरी तरह फंस गई है। इन दोनों सवालों पर भाजपा न हां कह पा रही है और न ही ना।

अगले साल यूपी में विधानसभा चुनाव है। यूपी में एक तरफ किसान आंदोलन तो दूसरी तरफ उसके पुराने सवर्ण जनाधार खासकर ब्रह्मण समुदाय में नाराजगी से भाजपा परेशान थी। 2017 में पिछड़े वर्ग की छोटी जातियों को उसने अपने पाले में कर लिया था। इस बार अबतक ऐसे समूह बिदके हुए हैं। इस स्थिति में जो भाजपा बार-बार जातियों से ऊपर रहने की बात करती रही है, वह इस बार खुलकर पिछड़ा कार्ड खेलने मैदान में उतरी। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी स्वयं कई बार खुद को अतिपिछड़ा बता चुका हैं, लेकिन इस बार भाजपा पूरे जोर-शोर के साथ पिछड़े वर्ग की राजनीति में कूदी। मंत्रिमंडल विस्तार की सबसे खास बात यही प्रचारित की गई कि इसमें इतने पिछड़े वर्ग के मंत्री हैं। इसके बाद आरक्षण संसोधन बिल पास करा कर वह समझ रही थी कि यूपी में पिछड़ों को अपने पाले में खींच लेगी।

आरक्षण की अधिकतम सीमा का सवाल सिर्फ बिहार में राजद ने ही नहीं उठाया है, बल्कि यह राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है। बंगाल में तृणमूल से लेकर महाराष्ट्र में शिव सेना तक ने आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग कर दी है।

आरक्षण के सावल पर भाजपा कम ही बोलती रही है। इस बार उसका आगे बढ़कर बोलना उल्टा पड़ता दिख रहा है। दो मुद्दे ऐसे उठ खड़े हुए, जिसका वह अबतक जवाब नहीं दे पाई है। पहला, देश में जातीय जनगणना हो और अब दूसरा आरक्षण की अधिकतम सीमा बढ़ाने का सवाल। ये दोनों मुद्दे उसे यूपी चुनाव ही नहीं, आगे भी परेशान करते रहेंगे।

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भाजपा के लिए मुसीबत यह है कि जिस वैचारिक आधार पर उसने जनाधार बनाया, उसमें आरक्षण विरोध प्रमुख है। भले ही भाजपा के नेता मंच से आरक्षण के खिलाफ न बोलें, पर उन्हें पता है कि उनका जनाधार आरक्षण के विरुद्ध है। जातीय जनगणना और आरक्षण का कैप बढ़ाने का अर्थ है अपने मुख्य जनाधार को नाराज करना।

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