अशोक चौधरी. कांग्रेस का एक उभरता चेहरा, जिनके पास राजनीति के लिए पूरा आकाश था अब कहीं अंधकार में गुम न होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. हमारे सम्पादक इर्शादुल हक चौधरी की उपलब्धियों और ब्लंडर की तहें खंगाल रहे हैं. [author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/06/irshadul.haque_.jpg” ][/author]
बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक चौधरी कल रात पटना गोल्फ क्लब में आयोजित विधायक दल (सीएलपी) से अचानक तमतमाये हुए निकले. चेहरे पर तनाव और नाराजगी साफ दिख रही थी. उन्होंने विधायक दल द्वार आयोजित डिनर को भी छोड़ दिया. चौधरी पिछले कई महीनों से धीरे-धीरे खुद अपनी पार्टी में साइडलाइंड होते जा रहे हैं. जबकि ये वही चौधरी हैं जो बस एक साल पहले तक बिहार कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता हुआ करते थे.
महागठबंधन सरकार के महत्वपूर्ण मंत्री, कांग्रेस के बिहार प्रदेश अध्यक्ष. नीतीश और लालू के साथ होने वाली मीटिंगों के समतुल्य चेहरा, सब कुछ तो थे चौधरी. पर आज हालत यह हो गयी है कि कांग्रेस विधायक दल की मीटिंग में उनकी हैसियत काफी कमजोर हो चुकी है. एक विधायक से जब मैंने चौधरी के बारे में पूछा की वह नाराज हैं तो उन्होंने वहां मौजूद अन्य विधायकों की तरफ देखते हुए कहा- ‘हू क्येर अबाउट हिम’. यानी चौधरी की किसे परवाह है. जब वह विधायक ये बात कह रहे थे तो बगल में बैठे अन्य विधायक मुस्कुरा रहे थे.
आखिर चौधरी की यह हालत क्यों हो गयी है? क्या चौधरी खुद ही अपनी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं?
नीतीश मोह का मकड़जाल
राजद-जदयू महागठबंधन की सरकार में रहते हुए अशोक चौधरी अपने पावर के साथ संतुलन नहीं बिठा पाये. उन पर मनमानी करने के आरोप लगे. बाद के दिनों में चौधरी नीतीश के साथ अपनी निकटता बढ़ाते चले गये. एक तरह से वह कांग्रेस आलाकामान को भी धता बताने लगे थे. खबरें यहां तक आने लगी थीं कि चौधरी अपने चंद समर्थकों के साथ नीतीश के पाले में जा सकते हैं. तब नीतीश ने गठबंधन तोड़ कर भाजपा संग सरकार बना ली थी. हालांकि इन आऱोपों को चौधरी ने हमेशा खंडन किया. लेकिन उनके व्यवहार से कुछ और ही लगता था. नीतीश कुमार के बुलावे पर वह नरेंद्र मोदी की मौजूदगी वाले पटना युनिवर्सिटी के शत्बादी समारोह का हिस्सा भी बने.ये बात भी कांग्रेस को खराब लगी थी. उन दिनों पार्टी अब टूटी की तब टूटी वाली स्थिति में थी. एक बार तो मामला यहां तक आ पहुंचा था कि आनन फानन में राहुल गांधी ने अपने सहयोगी सीपी जोशो और ज्योतिरादित्य सिंधिया को बिहार भेजा.यह पिछले वर्ष 11 अगस्त की बात है. खबर यहां तक आ गयी थी कि अशोक चौधरी अपने समर्थक विधायकों के साथ अलग होने को हैं. लेकिन इसके लिए उन्हें कुल 27 में से 18 विधायकों की जरूत थी ताकि उनकी विधायकी बची रहे. इसी बीच इस की भनक केंद्रीय कमेटी को लग गयी. सिंधिया और जोशी ने मिल कर इस चुनौती से निपटने में पूरी ताकत लगाई और वे कामयाब तो रहे लेकिन अशोक चौधरी की विश्वसनीयता अपनी पार्टी में तभी से जाती रही. बाद में हालात जब नियंत्रण में हुए तो आला कमान ने अपना पाशा फेका और चौधरी को अध्यक्ष पद से हटने के लिए मजबूर कर दिया. उनकी जगह कौकब कादरी को प्रभारी अध्यक्ष बना कर अशोक चौधरी की ताकत को एक तरह से ध्वस्त कर दिया गया.
राहुल भी हुए आहत
पार्टी में अब जो चौधरी को ले कर नया विवाद उठा है यह विवाद चुनाव प्रचार में उन्हें स्टार प्रचारक नहीं बनाये जाने को ले कर है. चौधरी इसे अपना अपमान मानते हैं. उधर कांग्रेस मुख्य धड़े के नेताओं का मनोबल काफी ऊंचा है. क्योंकि उन्हें राहुल गांधी का समर्थन प्राप्त है. कांग्रेस विधायक दल के तमाम विधायकों के तेवर से साफ झलक रहा है कि चौधरी के प्रति उनकी अब कोई हमदर्दी नहीं बची है. दो तीन विधायक अभ भी जरूर चौधरी के साथ हैं. लेकिन अब चौधरी की विश्वसनीयता अपनी ही पार्टी में काफी कम हो चुकी है. एक तरह से कांग्रेस ने यह तय कर लिया है कि या तो अब चौधरी पार्टी के समक्ष आत्मसमर्पण करें या फिर अपनी राह पकड़ें.
अब सवाल यह है कि चौधरी की हालत आखिर ऐसी क्यों हुई. दर असल चौधरी ने एक तरह से अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है. एक युवा और मंझे हुए नेता के रूप में चौधरी उभरे थे. 2015 के विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने 1990 के बाद पहली बार शानदार पॉरफार्मेंस किया था. गठबंधन के दोनों दल राजद व जदयू की सफलता दर से भी शानदार सफलता तब कांगेस को मिली थी. लेकिन चौधरी ने नीतीश कुमार के प्रति अपना मोह खत्म नहीं किया. जबकि, जब नीतीश महागठबंधन से नाता तोड़ रहे थे तो राहुल गांधी उनके रवैये से काफी आहत थे. ऐसे में अशोक चौधरी ने भी उन्हें आहत किया. चौधरी के सामने एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में खुद को एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभारने का अवसर था लेकिन उन्होंने नीतीश मोह में सब पर खुद ही पानी फेर दिया.
अनिश्चितता
भविष्य में नीतीश कुमार अशोक चौधरी को क्या मदद कर पायेंगे, या कर पाने की स्थिति में रहेंगे भी या नहीं, यह कहना मुश्कलि है. लेकिन फिलवक्त इतना तो तय है कि अशोक चौधरी के लिए कांग्रेस को बहुत सहानुभूति नहीं बची है. चौधरी अब दो राहे पर खड़ा हैं.