मेरी मातृभूमि बेगूसराय है । अगर आप Begusarai या बिहार की राजनीति को भारत के परिदृश्य में बारीकि से समझते हैं या समझना चाहते हैं तो यह लेख आपको एक अलग दृष्टि दे पाने में समर्थ हो सकता है ।
[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2018/09/amardeep.jha_.gautam.jpg” ]अमरदीप झा गैतम, विख्यात शिक्षाविद व डॉयरेक्टर एलिट इंस्टिच्युट, पटना[/author]
मेरी व्यक्तिगत छवि और जीवन-शैली एक शिक्षक की है, परंतु वर्तमान परिस्थिति और राजनीति में नवागांतुक उन्माद को देखते हुए कुछ लिखने को अग्रसर हूँ ।
जेएनयू के छात्र-संघ के पूर्व-अध्यक्ष कन्हैया कुमार को लेकर लोगों के मतांतर के बीच यह लेख अपनी आवश्यकता प्रदर्शित करता है । बेगूसराय बिहार का ऐसा एक जिला है, जो पूरे विश्व में कम्युनिस्टो के गढ के रूप में दिखा और यही कारण है कि इसे लेनिन-ग्राद के रुप में जाना जाता रहा ।
एक ऐसा भारत-खंड, जिसकी बहुसंख्यक आबादी अखंडित ब्राह्मणों (ब्राह्मण और भुमिहार) की है, जो अपने बुद्धिबल, साहस और निडरता की ऐतिहासिक विरासत समेटे हुए है । बिहार-केशरी श्रीकृष्ण सिंह के द्वारा महात्मा गांधी आहुत नमक-सत्याग्रह आंदोलन की अगुवाई से लेकर स्वतंत्र भारत के सुलझे नेता के रुप में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री होने और बार-बार निर्वाचित होने के बावजूद अपने प्रतिद्वन्दी श्री अनुग्रह नारायण सिंह की मुक्त-कन्ठों से प्रशंसा करने वाली शख्सियत के अतुलनीय प्रयास का फल रहा कि बरौनी रिफाइनरी, बरौनी फर्टिलाइजर, बरौनी थर्मल के साथ-साथ दर्जनो कारखानो की वजह से मिथिलांचल, अंगप्रदेश और मगध का यह सीमांचल-प्रदेश बेगूसराय बिहार की औद्योगिक-राजधानी के कारण भारत में अपना स्थान रखता है ।
ठेकेदारी और रंगदारी के कारण आपसी रंजिश और अस्थिर माहौल के कारण बिहार के आपराधिक और राजनीतिक उठा-पठक में इसकी मुख्य-अक्ष की भूमिका रही, पर कम्युनिस्टो की अपनी पकड़ हमेशा रही, जिसका प्रमाण शत्रुधन प्रसाद सिंह सरीखे जमीन से जुडे नेता रहे । जब नब्बे के दशक के अंत में कम्युनिस्टो के अंत की आधारशिला हुई तो यादव, कुर्मी, दलित और मुसलमान को लेकर लालू और काँग्रेस के गठजोड़ ने भ्रामक वातावरण तैयार किया, जिसकी भेंट कम्यूनिस्टो के साथ बेगूसराय की अगड़ी जातियों का वर्चस्व भी हो गया और कालान्तर में अन्य पिछडी जातियों और मुसलमानों ने बेगूसराय को भाजपा और जदयू के नाम पर हथियाने की कोशिश की और बहुत हद तक सफल भी रहे ।
ये हथकंडा भूमिहारों को नागवार गुजरा और इन्होंने खुद को राष्ट्रीय दलों के अलावा क्षेत्रीय दलों में अपनी पैठ बनाकर अपनी विरासत को बनाकर रखना चाहा और बहुत हद तक कामयाब भी रहे, यही कारण है कि किसी भी दल के भूमिहार नेता बेगुसराय में बिहार के किसी भी दूसरे प्रान्त की तुलना में ज्यादा अपनत्व अनुभव करते हैं ।
क्षद्म-राजनैतिक दुराग्रह
पिछले पन्द्रह वर्षों के राजनैतिक उठा-पठक में नीतिश कुमार को समर्थन देने के लिये अन्य जातियों के साथ मिलकर, खुद नीतिश कुमार को सत्तासीन और उसकी अगुवायी करने के बावजूद नरेन्द्र मोदी और भाजपा को एकमुस्त वोट देने वाला यह बौद्धिक-वर्ग 2015 बिहार विधान-सभा में आपसी कलह और क्षद्म-राजनैतिक दुराग्रहों के कारण सभी तरह के सियासी अटकलों के बीच यादवों और मुसलमानों को अनायास अभयदान देते हुए राजद और काँग्रेस को संजीवनी का काम करता है, जिसकी अपेक्षा किसी राजनीतिक-पंडितो को भी नहीं थी ।
राष्ट्रद्रोह के आरोपी
दो साल पहले लगातार एनडीटीवी-इमेजिन पर ‘बेगुसराय’ नामक एक धारावाहिक प्रसारित किया जा रहा था, जिसको देखने से बेगुसराय की जो छवि बनती है, वो फ़िल्मी है और वर्तमान से बिल्कुल अलग है, पर अतीत से अछूति नहीं है । कुछ महीनों पहले एबीपी न्यूज ने अपने प्राईम टाईम में बेगुसराय का जो आलेख प्रस्तुत किया, वो वर्तमान बेगूसराय को लेकर नहीं था, बल्कि पूर्वाग्रह-ग्रस्त था । जेएनयू विवाद में राष्ट्रद्रोह का आरोपी जेएनयू पूर्व-अध्यक्ष कम्युनिस्ट पार्टी का नेता कन्हैया कुमार बेगूसराय के बिहट गाँव का रहने वाला है, जो उमर खालिद और अरबान भट्टाचार्या के कार्यक्रम का समर्थक था, जिसमें भारत की अखंडता के विरुद्ध जो नारे लगे,वह अविस्मरणीय हैं। कन्हैया की गिरफ्तारी से बेगूसराय में पसरी उदासी और उसके अंतरिम जमानत पर जोरों की आतिशबाजी कम्युनिस्टो की बुझती आग को हवा तो देती ही है और साथ ही उन इरादों को बल भी देती है, जो नरेंद्र मोदी, भाजपा और हिंदुत्व जैसे मुद्दों को उठने से सशंकित हैं, ऐसे भाजपा-विरोधी ताकतो का एकजुट होना लाजिमी है.
न्यायालय के द्वारा अंतरिम जमानत देते हुए जज का वर्तमान स्थिति के प्रति दुख जताना और कन्हैया को हिदायत देना, फ़िर भी कन्हैया का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अभद्रतापूर्वक संबोधन करना एक गंभीर चिंता का विषय है. राजनेताओं के द्वारा मनोबल के साथ-साथ धन और राजनीतिक सम्बल देना, वर्तमान में कन्हैया को ऊर्जा तो दे रहा है, पर अतीत की गलतियों से यही प्रतीत होता है कि कहीं ये सिर्फ भाजपा-विरोधी गुट के प्यादे के रूप में बनकर ना रह जाये ।
मोदीफोबिया
लेफ्ट-पार्टियों के साथ-साथ समाजवाद का झंडा उठाने का रसूख रखने वाली पार्टियाँ कन्हैया को शह सिर्फ इस कारण दे रही हैं या उसका लाभ उठाना चाहती है, क्योंकि इसमें दलित-मजदूर और अभावग्रस्त का नाम लेकर मोदीफोबिया से अलग करने की दवा दिखती है, जिससे उनलोगों का मार्ग निष्कंटक हो जाये । अगर 2019 के लोकसभा-चुनाव में कन्हैया कुमार को बेगूसराय से सांसद-उम्मीदवार बनाया जाता है तो यह भारतीय राजनीति का वह चेहरा होता है, जो राजनीतिक-धारा को प्रबल-वेग से अपनी मनमानी और खुदगर्जी से जोड़ने का प्रयास कहा जा सकता है ।
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वैसे, कन्हैया मोदी-विरोधियों के लिये एक रामबाण है जो आज के उत्तेजक मोदी-महिमा को उसी भाषा में जवाब देता है । अभी तक के बेगूसराय के कम्युनिस्टों ने कभी भी अपनी मातृभूमि के दाँव पर कोई राजनीति नहीं चली, कन्हैया की इस पारी को गंभीरता से उनके गृह-क्षेत्र को लेना चाहिये ।