एनडीए में संकट, तेजस्वी के सामने मौका
यह ऐसा दौर है, जब पत्रकार विपक्ष की कमजोरी पर खूब लिख-बोल रहे हैं, पर सत्ता पक्ष का संकट उन्हें दिखता नहीं या देखकर भी अनदेखी करने को मजबूर हैं।
कुमार अनिल
आम तौर से किसी चुनाव में जीत के बाद सत्ता पक्ष ज्यादा एकताबद्ध होता है। 2005 और 2010 के चुनाव के बाद बिहार में एनडीए मजबूत और आत्मविश्वास से लबरेज था। जदयू और भाजपा में जबरदस्त तालमेल था। लेकिन इस बार नजारा बदला हुआ है। न तो 2010 वाला तालमेल दिख रहा है, न ही आत्मविश्वास। सत्ता का वह रुतबा भी नहीं दिख रहा है, जो दस साल पहले था। इसीलिए अपराध रोकने के लिए मुख्यमंत्री को बार-बार मीटिंग करनी पड़ रही है। जो सत्ता पक्ष की कमजोरी है, वह विपक्ष की ताकत बन सकती है।
सत्ता पक्ष में अलग-अलग सुर
भर चुनाव एनडीए यह साबित करने में जुटा रहा कि उसमें पूर्ण एकता है, पर लोजपा के निर्णय से बनी खटास दूर नहीं हुई, बल्कि चुनाव के बाद वह नए रूपों में जाहिर हो रही है। इस बार सुशील कुमार मोदी उपमुख्यमंत्री नहीं बनाए गए। उनका ट्विट पाठकों को याद होगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि कार्यकर्ता का पद उनसे कोई नहीं छीन सकता। सत्ता पक्ष में उथलपुथल का यह पहला उदाहरण था। दो उपमुख्यमंत्री बनाया जाना भी अनपेक्षित था।
अब शेरवानी में नीतीश, कुछ नया संदेश, कुछ नये मंसूबे!
इसका भी अपना अर्थ है। चुनाव के दो महीने बाद भी मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं हो सका है। इस बीच अरुणाचल प्रकरण, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद छोड़ना और पार्टी द्वारा लव जिहाद जैसे मुद्दे पर भाजपा से अपनी भिन्नता स्पष्ट करना भी खास है। जीतनराम मांझी की अपनी अपेक्षाएं हैं। कुल मिलाकर एनडीए किसी विजयी सेना की तरह नहीं दिख रही। यह स्थिति विपक्ष और खासकर राजद के लिए अवसर बन सकती है।
राजद के मुद्दों में आज भी दम है
चुनाव में राजद की सभाओं में भारी भीड़ उमड़ रही थी। तेजस्वी यादव जब नौकरी, पढ़ाई, दवाई की बात करते थे, तब उत्साह चरम पर होता था। इस बीच दिल्ली की सीमा पर डटे हजारों किसान विपक्ष को एक नया मुद्दा दे रहे हैं। सत्ता पक्ष के कई नेताओं ने ट्विट किया कि बिहार में किसान आंदोलन नहीं है, जिसका अर्थ है कि यहां के किसान नए कृषि कानूनों के समर्थक हैं। जबकि सच्चाई यह है कि बिहार के किसान अपनी उपज औने-पौने व्यापारियों के हाथ दे देते हैं। यह भी सच है कि पंजाब की किसानी और बिहार की खेती में अंतर है। जरूरत है दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को बिहार के किसानों से जोड़ना। निश्चित रूप से यहां किसान आंदोलन की मांगे भिन्न होंगी। बिहार के किसान ऐसे नेता की खोज कर रहे हैं, जो उनकी मांगों को स्वर दे। नौकरी-पढ़ाई-दवाई आज भी मुद्दा है। क्या विपक्ष और खासकर राजद सत्ता के संकट (crisis) और जनता की मांगों को स्वर देते हुए अपने लिए नए अवसर बनाएगा।