हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए भारत एक जूट, अंग्रेजी की दासता से मिलेगी मुक्ति
अंग्रेज़ी‘की दासता से मुक्ति मिले, इसलिए संपूर्ण भारतवर्ष एक जूट हो रहा है। यह देश के हर एक नागरिक के लिए‘वैश्विक लोक–लज्जा‘का विषय है कि, भारत की सरकार की कामकाज की भाषा,देश की कोई भाषा नहीं,एक विदेशी भाषा है। हम संसार में कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं हैं। पूरी दुनिया में भारत हीं एक मात्र राष्ट्र है, जहाँ की केंद्रीय सरकार की कामकाज की भाषा,अर्थात राज–भाषा‘,उसके अपने देश की भाषा नहीं है।
लज्जा की बात
यह पूरब से पश्चिम तक उत्तर से दक्षिण तक हर एक भारतवासी के लिए घोर लज्जा की बात है। इस लोक–लज्जा के अपमान बोध से उबर के लिए,एक बार फिर भारतवर्ष एक जूट हो रहा है। हमें १९४७ में राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई, किंतु सांस्कृतिक और बौद्धिक–स्वतंत्रता आज तक नहीं मिली, क्योंकि हम अभी तक अपनी भाषा में काम नहीं कर पा रहे। हमने देश की स्वतंत्रता के लिए एक बड़ी लड़ाई लड़ी, अब अपनी भाषा और संस्कृति की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़नी होगी।
यह बातें गत शनिवार को बेंगलुरु के श्री कोलद मठ महासंस्थान परिसर में, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गौरवशाली १००वें वर्ष में,कर्नाटक राष्ट्रभाषा परिषद एवं सम्मेलन के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित विशेष अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन के अध्यक्ष ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, भारत की स्वतंत्रता के बहुत पहले हीं देश के महान नेताओं ने यह गहन विचार–विमर्श और चिंतन के पश्चात यह माना था कि, ‘हिन्दी‘ देश को एक सूत्र में जोड़ने वाली संपर्क की भाषा हो सकती है। और इसीलिए स्वतंत्रता–आंदोलन के साथ–साथ हिन्दी के प्रचार–प्रसार का कार्य आरंभ हुआ था। संपूर्ण देश के नेताओं और महापुरुषों ने इसमें अपनी सहमति जताई और इसके लिए यत्न किए। पूरे भारतवर्ष में कहीं भी हिन्दी के लिए विरोध नहीं है। ये कुछ ओछे राजनेता हैं जो अपनी राजनीति चलाने के लिए, हिन्दी विरोधी बातेंकरते हैं और यह भ्रम फ़ाइलाने की चेष्टा करते हैं कि, हिन्दी उन पर थोपी जा रही है। हम दक्षिण के लोगों के मन में बैठाए जा रहे इस दोषपूर्ण भ्रम को दूर करना चाहते हैं कि, हिन्दी भाषा और साहित्य की उन्नति से भारत की किसी भी दूसरी भाषा का अहित नहीं होगा, बल्कि इससे प्रेम बढ़ेगा, भारत की एकता मज़बूत होगी। वे लोग जो हिन्दी के थोपे जाने का डर दिखा रहे हैं उन्हें यह सोचना चाहिए कि वे किस तरह ,सदियों से उन पर थोपी गई एक विदेशी भाषा से मुक्त होंगे!
विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर
अधिवेशन का उद्घाटन करते हुए, श्री कोलद मठ के पीठाधीश्वर डा शांतावीर महासवामी जी ने कहा कि, भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी देश की सरकार की राजकाज की भाषा तो क्या शीघ्र हीं विश्व की भाषा बनेगी। यह शांति की भाषा है। यह ‘वसुधैव कूटुंबकम‘ की भाषा है। इसमें भारत की सभी भाषाओं का मर्म और शब्द हैं। उन्होंने कहा कि बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन और कर्नाटक राष्ट्रभाषा परिषद मिलकर देश की सभी भाषाई संस्थाओं को जोड़ेंगे और पूरे भारतवर्ष को हिन्दी के लिए एक करेंगे। राष्ट्र की एक सर्वमान्य भाषा के अभाव में देश की प्रतिष्ठा नहीं बनेगी। हमें एकजुट होकर हिन्दी को मज़बूत करना चाहिए।
इसके पूर्व सम्मेलन अध्यक्ष डा सुलभ ने महास्वामी जी को,सम्मेलन की सर्वोच्च मानद उपाधि ‘विद्या–वाचस्पति‘देकर सम्मानित किया। इसके पश्चात हिन्दी भाषा और साहित्य की मूल्यवान–सेवाओं के लिए, डा शांतावाई को ‘महीयसी कुमारी राधा हिन्दी–सेवी सम्मान‘, डा प्रभा शंकर प्रेमी को ‘आचार्य रामवृक्ष बेनीपुरी सम्मान‘,डा एम विमला को ‘विदुषी गिरिजा वर्णवाल हिन्दी सेवी सम्मान‘, डा सिद्धलिंग पट्टनशेट्टी को ‘आचार्य शिवपूजन सहाय हिन्दीसेवी सम्मान‘, डा प्रतिभा मुदलियार को ‘ महादेवी बच्चन देवी हिन्दी सेवी सम्मान‘,डा मनोहर भारती को ‘राजा राधिका रमन प्रसाद सिंह सम्मान‘, डा मैथिली प्र राव को डा मिथिलेश कुमारी मिश्र हिन्दी सेवी सम्मान‘, श्री षणमुखैय्या अंकुरमठ को ‘राजा बहादुर कीर्त्यानंद सिंह सम्मान‘, डा टी रवींद्रन को ‘गोपाल सिंह नेपाली सम्मान‘ तथा सौम्यलता एच एम के को ‘उर्मिला कोल सम्मान‘ से विभूषित किया गया। अधिवेशन में ‘हिन्दी‘व्यावहारिक रूप में,भारत की सरकार की राजकाज की भाषा कैसे बने, इस पर संगोष्ठी भी आयोजित हुई।
आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए,सम्मेलन के वरीय उपाध्यक्ष नृपेंद्रनाथ गुप्त ने बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गौरवशाली १००वर्षों के इतिहास पर संक्षिप्त चर्चा की तथा हिन्दी भाषा और साहित्य के अवदान से परिचित कराया। उन्होंने बताया कि, भारत के प्रथम राष्ट्रपति देश रत्न डा राजेंद्र प्रसाद द्वारा स्थापित यह संस्था देश भर के साहित्यकारों के लिए तीर्थ की तरह रही है। देश–रत्न स्वयं हिन्दी का प्रचार करने के लिए दक्षिण के प्रांतों की अनेकों बार यात्राएँ की।
इस अवसर पर समारोह की विशिष्ट अतिथि डा उषा रानी राव, डा लता चौहान, डा रणजीत कुमार, डा गुणवंत,अनिल कोहली तथा एच डी गंगराज ने भी अपने विचार व्यक्त किए।मंच का संचालन वरिष्ठ कवि डा इंदुकांत अंगिरश ने तथा धन्यवाद–ज्ञापन कर्नाटक राष्ट्रभाषा परिषद के उपाध्यक्ष डा मनोहर भारती ने किया।