बिहार में कुशवाहा और कुर्मी मतदाताओं ने भाजपा को ऐसा झटका दिया है कि पूरी पार्टी सकते हैं। इन दोनों समुदायों को भाजपा मजबूत आधार माना जाता था, लेकिन दो चरणों के मतदान खासकर नवादा और औरंगाबाद के चुनाव ने इस धारणा को ध्वस्त कर दिया है। ऊपर-ऊपर देखने से लगता है कि भाजपा ने किसी कुशवाहा को टिकट नहीं दिया, इसलिए इस तबके में नाराजगी है, लेकिन भीतर जाकर देखें, तो कुशवाहा और कुर्मी का भाजपा से छिटकना दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार पर से विश्वास उठना है। लोगों को समझ में आने लगा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव में हिंदू-मुसलमान करके असली मुद्दों पर पर्दा डाल रहे हैं।

विचार करने वाली बात यह है कि 2019 चुनाव में कुशवाहा और कुर्मी मतदाता नहीं टूटे। नवादा में श्रवण कुमार अगर 2019 में खड़े होते, तो कुशवाहा वोट का टूटना कठिन था। मुंगेर में राजद के अशोक महतो ने कुर्मी वोट तोड़ दिया है। 2019 में यह संभव नहीं था। 2019 और 2014 में बड़ा फर्क है। तब पुलवामा की घटना को जिस प्रकार प्रधानमंत्री ने राष्ट्रवाद से जोड़ा, तो लोगों को लगा कि देश बचाना है, लेकिन इस बार बेरोजगारी और महंगाई मुद्दा बन गया है। प्रधानमंत्री मोदी बेरोजगारी पर बात नहीं करते, वे मछली, मुसलमान, राम मंदिर, मंगलसूत्र पर भाषण दे रहे हैं, जिसे लोगों ने समझ लिया है।

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जब नेतृत्व कमजोर होता है, तभी छोटी-छोटी बातें बड़ी हो जाती हैं। 2019 में मतदाता प्रत्याशी नहीं देख रहा था, वह ऊपर मोदी-नीतीश को देख रहा था। इस बार मोदी और नीतीश की प्रतिष्ठा कम हुई, तो स्थानीय मुद्दे बड़े हो गए। कहीं कुशवाहा नाराज है, कहीं कुर्मी तो कहीं राजपूत। हरियाणा-राजस्थान और यूपी में राजपूत नाराज हैं। स्थिति यह हो गई है कि प्रधानमंत्री की सभाओं के बाद भी पहले चरण में मतदाता घर से कम निकले और बिहार में सबसे कम मतदान हुआ। दूसरे चरण में भी कम मतदान हुआ, ये भाजपा के लिए चिंता का विषय बन गया है।

लगता है राजद और इंडिया गठबंधन ने इस संभावना को भांप लिया था, इसलिए राजद ने तीन कुशवाहा प्रत्याशी दिए। सीपीएम, माले और वीआईपी ने एक-एक प्रत्याशी दिए। वहीं भाजपा निश्चिंत थी कि कुशवाहा और कुर्मी मतदाता तो उसकी मुट्ठी में है। यह धारणा भाजपा के लिए घातक साबित हुई।

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