यह वक्त का फेर है. अमित शाह पटना पहुंचे तो नीतीश कुमार गुलदश्ता लिये वहां पहुंचना पड़ा जहां वह रुके हैं. एक वह दौर था जब नीतीश की मर्जी चलती थी और मोदी तड़प के रह जाते थे पर उन्हें बिहार में घुसने नहीं दिया जाता था.
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
एक यह दौर आया है जब अमित शाह पटना आये तो, भले ही नीतीश उनके स्वागत के लिए एयरपोर्ट नहीं गये लेकिन उनके पास हाजिरी लगाने नीतीश को गेस्ट हाउस जाना पड़ा.
अमित शाह की बिहार की बहुचर्चित यात्रा उनकी पार्टी की मीटिंग थी. लेकिन इस यात्रा की असल चर्चा नीतीश-शाह मुलाकात के लिए हुई. यात्रा की तारीख के ऐलान के बावजूद काफी दिनों तक यह बात सामने नहीं आ सकी थी कि नीतीश की शाह से मुलाकात होगी भी या नहीं. लोग कयास लगाते रहे. आखिर-आखिर तक भाजपा वाले भी सब कुछ छुपाये रहे. लेकिन अमित शाह के पटना आगमन के दो दिन पहले अधिकृत घोषणा हुई कि नीतीश की शाह से मुलाकात होगी. लेकिन भाजपा के अंदरूनी सूत्रों ने ही यह राज खोला है कि अमित शाह इस शर्त पर नीतीश के साथ उनके आवास पर डिनर करेंगे जब, सुबह नीतीश कुमार उनसे मिलने गेस्ट हाउस आयेंगे.
नीतीश को यह शर्त माननी पड़ी. वह गुलदश्ता लिए अतिथिशाला गये. शाह से मिले. पर अमित शाह के पास इतना कम वक्त था कि उन्होंने नीतीश कुमार से हाल-चाल जानने के अलावा किसी गंभीर मुद्दे पर बात नहीं की. और फौरन अपनी पार्टी के कार्यक्रम में रवाना हो गये.
लोकतांत्रिक राजनीति में किसी नेता का स्थाई इकबाल नहीं रहता. सो नीतीश ने अब महसूस कर लिया है कि उनका भी इकबाल बीते दिनों की बात हो चुकी है. हालांकि पिछले दिनों दिल्ली की कार्यकारिणी की बैठक में अपनी सरकार के इकबाल पर नीतीश ने खूब भाषण दिया था. अपने सहयोगी नेताओं को यह ससझाने की कोशिश की थी कि सरकार का इकबाल कायम है. पर अमित शाह की बिहार यात्रा ने कुछ और ही साबित कर दिया.
इसके पहले प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी नीतीश कुमार को पटना में सार्वजनिक तौर पर इग्नोर कर चुके हैं. पटना विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह के दौरान नीतीश ने पीयू को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा मांगते हुए कहा था कि मैं हाथ जोड़ कर विनती करता हूं कि इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रधान मंत्री दे दें. लेकिन पीएम ने टका सा जवाब दिया था कि पीयू खुद अपनी स्थिति सुधारे.
वैसे अगर आप 2009 के दौर की बात करें तो पता चलता है कि तब नीतीश कुमार के इकबाल की ऊंचाई यह थी कि बिहार के दौरे पर भाजपा का कौन नेता आयेगा औऱ कौन नहीं आयेगा,यह नीतीश कुमार तय करते थे. यह नीतीश ही थे जिन्होंने 2009 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को बिहार आने से रोक दिया था.
अब यह हालत है कि नीतीश कुमार भाजपा से 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए सीट शेयरिंग के मामले को सुलझाना चाहते हैं. पर अमित शाह इसे अभी और लटकाने के मूड में लग रहे हैं. भाजपा की इस रणनीति का आभास खुद जदयू के महासचिव केसी त्यागी के बयान से हो जाता है. अतिथिशाला में नीतीश-शाह मुलाकात के बाद त्यागी ने कहा- “गठबंधन के दोनों वरिष्ठ नेताओं के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण में बातचीत हुई है, लेकिन अभी यह पहले ही दौर की बातचीत है. ऐसे में सीट बंटवारे को लेकर सारी बातें तय हो जाएंगी, इस पर संशय है”. यह नीतीश कुमार की यह आज की बेबसी है. महागठबंधन छोड़ कर भाजपा के साथ आने पर उनका मुख्यमंत्री पद तो बचा रह गया, पर जहां तक उनकी सरकार के इकबाल का सवाल है तो वह नहीं बचा पाये.
कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं कि अतिथि का सत्कार करने से इकबाल का क्या लेना-देना? तो उन्हें समझना चाहिए कि नीतीश राज्य के मुख्यमंत्री हैं. अमित शाह न कोई प्रधान मंत्री हैं और ना ही राष्ट्रपति. वह उनके सहयोगी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. ठीक वैसे ही जैसे नीतीश जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. दर असल भाजपा ने अमित शाह की इस यात्रा को इस तरह डिजाइन किया था जिससे नीतीश कुमार को हलका दिखाया जा सके. इसमें वह कामयाब रही है. नीतीश को हलका दिखाने के पीछे की रणनीति का दूसरा पहलू यह है कि लोकसभा में सीटों के बंटवारे में यह जताया जा सके कि बिहार में बड़े भाई की भूमिका 2009 तक नीतीश की जरूर थी, पर अब बात पलट गयी है.