14 दिसम्बर को यह तय हो जाना है कि गुजरात में 22 वर्षों का भाजपा राज चलता रहेगा या उसके एक क्षत्र राज पर विराम लगेगा. नतीजा जो भी हो लेकिन यह तय है कि गत 22 वर्षों में भाजपा को इस राज्य में  सबसे कठिनतम चुनाव से साबका पड़ा है

 

 

इर्शादुल हक, एडिटर,नौकरशाही डॉट कॉम

 

22 वर्षों का समय उतना ही होता है जितने समय में एक नयी पीढ़ी जवानी से बूढ़ापे में कदम रख चुका होता है. और यह समय उतना ही होता है जब एक नयी पीढ़ी बचपन की उम्मीदें लिये जवान हो चुका होता है. भाजपा के चुनावी चुनौतियों का यही सारांश है, जहां एक पीढ़ी बूढ़ी हो चली है और भले ही वह अब भी भाजपा के संग है पर जो नयी पीढ़ी सामने आयी है उसके सपने बे मौत मर रहे हैं. इस नयी पीढ़ी ने बचपन से सुनहरे वादे तो सुने हैं पर इन वादों को हकीकत में बदलते नहीं देखा है. और दर असल भारतीय जनता पार्टी के लिए यही पीढ़ी चुनौती है. इसी पीढ़ी ने दशक से ज्यादा समय से बुनिया क्षेत्रों और कार्पोरेट जगत के चमकते पंचसितारा व गगनचुम्बी इमारतों की तरक्की तो दूर से देखी है पर अपने लिए रोजगार के अवसर नहीं देखे. और याद रखना होगा कि इस युवा पीढ़ी यानी 30 वर्ष तक की आयु के गुजरात में 33 प्रतिशत यानी सवा करोड़ के करीब मतदाता हैं.

सवा करोड़ युवाओं की इस फौज ने पारम्परिक नेताओं पर भरोसा करना छोड़ दिया है. इस पीढ़ी  को नरेंद्र मोदी का सोकाल़्ड  विकास का गुजरात माडल छलावा लगता है. क्योंकि इस पीढ़ी ने पढ़ लिख कर डिजिटल युग में यह जान लिया है कि  इस माडल में कार्पोरेट घरानों की चमक दमक तो बढ़ी है पर ग्रामीण क्षेत्रों, कृषि और खेती से जुुड़ी उनके मांबाप की पीढ़ी ने सपने तो जरूर पाले पर कंगाली का सामना भी किया. खेती किसानी से जुड़े लोगों को उचित दाम नहीं मिले. इन किसानों ने मजबूर हो कर खेत बेच कर या कर्ज ले कर बच्चों को शिक्षा तो दिला दी लेकिन निजी क्षेत्र की शोषक कम्पनियों ने उन्हें नौकरी नहीं दी. सरकारी क्षेत्र में उन्हें ज्यादा से ज्यादा ठेके पर तो रखा पर पगार देने की जब बात आयी तो दिहाड़ी मजदूरों के बराबर सैलरी ही मिली. इस नयी पीढ़ी की रही सही कसर नोटबंदी के कारण बंद हुे छोटे कारखानों और जीएसटी से तबाह उद्योगों ने पूरी कर दी. इस पीढ़ी ने देखा कि सोकाल्ड राष्ट्रवाद और किसी पार्टी की भक्ति ने अपनी उम्र तो गंवा दी पर रोटी और सहूलतें  उनके लिए नदारद ही रहीं. यह पीढ़ी किसी पारम्परिक नेता की बात इस चुनावी अभियान में सुनने को अमादा नहीं रहीं. नरेंद्र मोदी या अमित शाह ही की बात नहीं, यह पीढ़ी कांग्रेसियों पर भी बहुत भरोसा करने के बजाये खुद अपनी पीढ़ी के नये उभरते युवा नेताओं पर ज्यादा भरोसा करती देखी गयी. ये युवा नेता हार्दिक पटेल, कल्पेश ठाकुर और जिग्नेश मेवानी के रूप में सामने आये. इन तीनों नेताओं की सियासी जिंदीगी बस उतनी ही है जितनी केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार की आयु. यह कारण है कि नयी पीढ़ी के युवाओं के लिए अमित शाह की सभायें इंतजार करती रह गयीं तो चमचमाते हुए मोदी के मंच के सामने की कुर्सिया भी खाली पायी गयीं.

यह वही पीढ़ी है जिसकी आखों में नरेंद्र मोदी ने आसमान से ऊंचे सपने तो जगा दिये लेकिन जब उनके सपनों के साकार होने का वक्त आया तो उन्हें आंखें फाड़ कर देखने के सिवा कुछ नहीं मिला. इस पीढ़ी के सपने को भारतीय जनता पार्टी के 22 वर्षों के कार्यकाल ने  बोया. और जब उसे फल मिलने की बारी आयी तो नाउम्मीदी के कांटे मिले. नाउम्मीदी के चूभते इन कांटों ने इस पीढ़ी को इतना परेशान किया कि जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पाकिस्तान का भय उन्हें दिखाया तो वे उनके भय में नाटक के सिवा कुछ नहीं देख पाये. जब इस पीढ़ी को नरेंद्र मोदी ने हिंदुत्व के नाम पर ललकारा तो भी यह पीढ़ी अपने रोजगार के दर्द को ही तलाशती रही. जबकि इस पीढ़ी को अनुभवहीन नेताओं की तिकड़ी हार्दिक, जिग्नेश और कल्पेश ने ललकारा तो ये सड़कों पर चली आयी. वहीं एक हद तक कांग्रेस के युवा चेहरे राहुल ने इस पीढ़ी से जुड़ी पीड़ा को सहला दिया है.

पिछले चार हफ्ते से गुजरात के बदलते हालात पर नजर रखने वाले लोग भले ही खामोश हों पर उन्हें पता चल चुका है कि यह खामोशी 18 दिसम्बर को चुना नतीजों के रूप में चीख कर बोलेगी.

By Editor


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