मोदी सरकार ने सीबीआई डॉयरेक्टर को हटा कर भारी जोखिम और फजीहत मोल ले लिया है.यह लगभग तय है कि उसे अपमानित होना पड़ेगा.

एडिटोरियल कमेंट- इर्शादुल हक

यह अपमान ठीक वैसा ही होगा जैसे उत्तराखंड सरकार को बर्खास्त करने के बाद उठाना पड़ा था. उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को 21 अप्रैल 2016 को बहाल कर दिया था. केंद्र सरकार ने वहां बहुमत की सरकार की गर्दन काट कर राष्ट्रपति शासन लगा चुकी थी और जबरन वहां भाजपा सरकार बनवाना चाह रही थी.

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सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा ने, अपने स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना पर रिश्वतखोरी का आरोप लगा कर एफआईआर किया था.यह तय था कि अस्थाना गिरफ्तार कर लिये जाते. लेकिन अदालत ने अस्थाना को कुछ दिन के लिए राहत दे दी थी। अस्थाना गुजरात कैडर के हैं और मोदी के प्रियपात्र हैं. सवाल यह उठाये जा रहे हैं कि आलोक वर्मा राफायल सौदे की फाइलों पर नजर गड़ाये थे. उससे पहले ही केंद्र ने ऐसे हालात पैदा कर दिये कि वर्मा को जबह कर दिया गया.

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लोकतंत्र में संस्थायें अपना वजूद रखती हैं. कोई तानाशाह किसी संस्था को ध्वस्त तो कर सकता है पर जुडिसियरी इस तानाशाही पर लगाम लगा सकती है. सीबीआई निदेशक की नियुक्ति प्रधान मंत्री अकेले नहीं कर सकता। इसके लिए प्रधान मंत्री, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और लोकसभा में विपक्ष के नेता की कमेटी होती है.यह कमेटी ही निदेशक चुनती है. निदेशक का न्यूनतम कार्यकाल दो साल का होता है. उससे पहले उसे हटाया नहीं जा सकता. विशेषज्ञों का कहना है कि अगर निदेशक भ्रष्ट आचरण का हो तबभी उसे नहीं हटाया जा सकता. हां, उसके भ्रष्टाचार की जांच अलग से कराई जा सकती है।

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यह याद रखिये कि भारत कोई सऊदी अरब नहीं है जहां कि क्राउन प्रिंस का हुक्म आखिरी मान लिया जाये. भारत कोई चीन भी नहीं जहां की तानाशाह सरकार( 1989 में) थिएनमैन चौक पर लोकतंत्र समर्थकों को बोल्डोजर से रौंदवा डाले और देश बेबसी में सब कुछ सहता चला जाये.

हां लेकिन यहां यह जरूर हो रहा है कि संस्थाओं पर बोल्डोजर चलाया जा रहा है. अब देश को सोचना है कि ऐसे तानाशाह सरकार को वह कब तक और कितना बर्दाश्त करता है.

By Editor


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