चिराग की लौ मद्धिम जरूर हुई. पर बुझ गई, यह कहना जल्दबाजी होगी.सत्तालोलुपता के आगे चाचा पारस ने रिश्ते के मायने ही बदल कर रख दिया.

चिराग पासवान भले ही जुआ हारे हैं परंतु महाभारत नहीं

चिराग पासवान भले ही जुआ हारे हैं परंतु महाभारत नहीं
संजय वर्मा

चिराग की लौ मद्धिम जरूर हुई. पर बुझ गई, यह कहना जल्दबाजी होगी.सत्तालोलुपता के आगे चाचा पारस ने रिश्ते के मायने ही बदल कर रख दिया.

चिराग के पिता रामविलास पासवान ने जिन पारस व रामचन्द्र जैसे भाई और प्रिंस राज जैसे भतीजे के कारण सब दिन वांशवाद का आरोप झेला, भाई भतीजों पर सब कुछ न्योछावर किया उनकी मृत्यु के छह माह बाद ही उनकी पत्नी और पुत्र के पीठ में खंजर भोंक दिया.

इसका तात्कालीक लाभ के रूप में भले ही पशुपति पारस को केन्द्र में मंत्री बन जायें. भले ही वह संसदीय दल का नेता राष्ट्रीय अध्यक्ष या अन्य जो भी पद पर काबिज हो जाएं, पूरी लोजपा को जेब मे कर लें.किसी के इशारे पर किसी की गोद मे बैठ जाएं. यह तात्कालिक होगा. जहां तक रामविलास पासवान की विरासत मतलब पासवान समाज के लोग चिराग के पीछे ही गोलबंद होंगे.

चाचा के धोखे के बाद अब क्या करेंगे चिराग

चुनाव में वोट के आगे नेता बिल्कुल महत्वहीन है. ऐसे में जिन 4 सांसदों के सहारे पशुपति पारस क्षणिक आनन्द सुख भोग सकते हैं. पर जब असली परीक्षा यानी चुनाव आएगा तो उनका समाज उनको स्वीकार कल लेगा, ऐसा बमुश्किल ही संभव है. बल्कि सच्चाई तो यह है कि पिछे कुछ सालों में रामविलास पासवान ने बेटे के हाथ में कमान सौंप दी थी. इसके कारण चिराग की पकड़ पार्टी के निचले स्तर तक बढ़ी है. लिहाजा वह जैसा कहेंगे चाहेंगे वैसा ही होगा. न कि पशुपति पारस के साथ पार्टी के कार्यकर्ता रहेंगे. इस तरह रामविलास पासवान की पार्टी पर भले ही पारस कब्जा कर लें पर जहां तक वोटबैंक की बात है वह चिराग के पास ही रहेगा. चिराग पार्टी के नेता हैं और रहेंगे.

यह पूंजी उनसे कोई नही छीन सकता वो जुआ जरूर हारे हों पर महाभारत बिल्कुल नही

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