पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के शासनकाल में भाजपा के विस्तार की कोशिशें भले ही जो परिणाम दें,पर वहां दलित-मुस्लिम गोलबंदी का प्रयास खामोश तरीके से परवान चढ़ रहा है. इस गोलबंदी पर ममता सरकार की गुप्तचर एजेंसियों की पैनी नजर भी है.
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम, मिदनापुर से लौट कर
दलित-मुस्लिम फ्रेंडशिप सोसाइटी पिछले कई वर्षों से पश्चिम बंगाल के दूरस्थ इलाकों में सक्रिय है. जो राज्य के दलित, आदिवासी व मुस्लिम बहुल जिलों में में बड़ी खामोशी से अपने विस्तार की कोशिशों में लगा है. पिछले छह महीने में इस सोसाइटी ने मिदनापुर, कोलकाता, हावड़ा आदि जिलों में अपने कार्यक्रम आयोजित कर चुका है. इन कार्यक्रमों में दिलत, मुस्लिम और आदिवासी संगठनों के 300 से प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया. इसी क्रम में गत 22 अक्टूबर को मिदनापुर के बाजकुल मिलन मंच परिसर में डीएमएफएस व एजीएस ने संयुक्त रूप से रामास्वामी नायकर के नाम पर कार्क्रम आयोजित किया. इस कार्यक्रम में पश्चिम बंगाल की वामसेफ प्रदेश कमेटी के अध्यक्ष समेत अनेक नुमाइंदे मौजूद थे.
दलित मुस्लिम फ्रेंडशिप सोसाइटी( डीएमएफएस) के प्रमुख मोहम्मद सुलैमान और उनकी टीम के फुलटाइमर सहयोगी, अब्दुर्रहमान, काजी कमरुज्जमा पिछले चार पांच वर्षों से दलित-मुस्लिम एकता के लिए काम कर रहे हैं. उनके अथक प्रयासों का नतीजा है कि इस संगठन ने राज्य के 15 जिलों में अपने संगठन का विस्तार कर लिया है. इन संगठनों के सामाजिक ध्रूवीकरण का प्रभाव सीधे तौर पर ममता बनर्जी की पार्टी तृणमुल कांग्रेस के पारम्पर वोट आधार पर पड़ रहा है. इस डेवलपमेंट से तृणमूल कांग्रेस की भवें तन गयी हैं. लिहाजा पिछले अगस्त में इन संगठनों के, कोलकाता में आयोजित होने वाले कार्यक्रम को जिला प्रशासन ने अंतिम समय में रोक लगा दी. इस रोक से तृणमूल कांग्रेस के अंदर मची खलबली का पता चलता है.
दलितों-पिछड़ों की शिकायत
दर असल सात वर्ष पहले वामपंथ के किले को ढाह कर सत्ता में आई ममता बनर्जी का वोट आधार लगभग वही है, जो कभी वामपंथी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का हुआ करता था. दोनों पार्टियां मध्यवर्गी जातियों, दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के वोटों की बदौलत राज करती रही हैं. दलित संगठनों में यह एहसास मजबूती से बढ़ रहा है कि सत्ताधारी इन पार्टिों ने हाशिये के समाज का इस्तेमाल वोट के लिए तो करती है, पर उन्हें सत्ता का हिस्सेदार नहीं बनाती. डीएमएफएस के काजी कमरुज्जमा बताते हैं कि ये मार्क्सवादी हों या तृणमूली, दोनों की एक ही रणनीति है कि दलितों और मुसलमानों के कुछ वैसे समूहों को जो मुखर हैं, उनके साथ सौदा कर लेती हैं, नतीजतन हाशिये के समाज को भारी नुकसान उठाना पड़ता है. वहीं अब्दुर्रहमान कहते हैं कि मुस्लिम धार्मिक समूहों के कुछ नेता सत्ता की दलाली करके पूरे समाज को धोखा देती हैं, ऐसे में दलित और मुस्लिम संगठनों की यह जिम्मेदारी है कि वे ऐसी संस्कृति का खात्मा करें और अपनी राजनीतिक शक्ति को पहचानें.
दलित-मुस्लिम संगठनों के विस्तार के दो मंत्र
दलित मुस्लिम संगठनों की सामाजी गोलबंदी के दो प्रमुख सूत्र हैं- पहला, धर्मांधतना पर आधारित सामुदायिक विभाजन के खिलाफ मुखर स्वर देना. दूसरा, हाशिये के समाज की सामाजिक पहचान को मजबूत करना. ऐसे में स्वाभाविक तौर पर इन संगठनों द्वारा एक तरफ भाजपा के विस्तार को चुनौती मिलेगी तो दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता के नाम पर लोगों को गुमराह करने की ममता बनर्जी की राजनीति को भी चैलेंज फेस करना होगा.
पिछले चालीस-पचास वर्षों के दौरान वामपंथी, कांग्रेसी या फिर तृणमूल शासनकाल ने जातीय चेतना को कमजोर बनाये रखा है. लेकिन अब हालात बदलने लगे हैं. सत्ता की इस राजनीति को आदिवासी, दलित, शोषित और मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा समझ चुका है और इस बिना पर वे बड़ी तेजी से संगठित हो रहे हैं. हालांकि ऐसा नहीं दावा किया जा सकता कि ये संगठन फिलवक्त इतने सशक्त हो गये हैं कि वे ममता बनर्जी को सीधी चुनौती पेश कर सकें. लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये संगठन आने वाले दिनों में एक मजबूत जनाधार बनाने में सफल होंगे.