पंद्रह अप्रैल का दिन, दीन बचाव देश बचाव के नाम था. मुझे पहले दिन से ही इस नाम पर आपत्ति थी। मैं दोस्तों से इस विषय पर चर्चा करता तो उनकी ऐसी बातें सुनकर चुप हो जाता कि अब शक्ति का प्रदर्शन करना भारतीय मुसलमानों की ज़रूरत बन गया है। है। जहां उलेमा का ज़िक्र आता है , मैं वहाँ खामोश हो जाता हूं। इस का एक विशेष कारण भी है। मैं मानता हूं कि यह समय व्यक्तिगत मतभेदों का नहीं है।
हम समय के ऐसे चौराहे पर खड़े हैं, जहां मुसलामानों के लिए कोई भी रास्ता किसी विशेष दिशा की तरफ नहीं जाता। हर रास्ता एक खौफनाक दिशा की तरफ जाता हुआ नज़र आता है है। ताकत के प्रदर्शन के नाम पर डर का अनुभव होता था। । ज़रा सोचिए कि यदि सौ करोड़ लोगों की बहुमत ने ताकत का प्रदर्शन करना शुरू किया, तो उनके सामने हमारी क्या हैसियत होगी ? दीन और देश के संयोजन के साथ, जो एक कोलाज बन रहा था, वहाँ मुझे एक बड़ी साज़िश की बू महसूस हो रही थी।
2014 के पहले का समय याद करें । आरएसएस सफल क्यों हुआ? क्यों मोदी विजयी हुए ? एक सीधा जवाब यह भी था कि इस की वजह मुसलमान थे। .आज़ादी के सत्तर वर्षों में कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों ने मुस्लिम मुस्लिम का नारा कुछ ऐसे बुलंद किया कि हमें पता भी नहीं चला और हिंदू बहुमत मुसलमानों से शंकित और दूर होता चला गया।
यह घृणा कुछ इतनी बढ़ गयी कि हिंदू राष्ट्र का रास्ता साफ होता नजर आया। आरएसएस को इसी रास्ते बड़ी सफलता मिली है.और इस सफलता के बाद मुसलमानों के नाम से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तक पनाह मांगने लगी। .क्योंकि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों को यह पता था कि मुसलमानों के नाम से हिंदू वोट प्रभावित होंगे। मुसलमानों के नाम लेने से बहुमत उन से दूर छिटक जायेगी। मैं इस प्रतक्रिया को बुरा नहीं मानता । यह भी हमारा लाभ था. मुसलमान खुद को मुख्य धारा के रूप में कल्पना कर सकते थे .
मोदी सरकार के सत्ता में आते ही मुसलमानों के धैर्य का पैमाना तो ग्रस्त हुआ लेकिन देश के मुसलमानों ने जिस धैर्य का परिचय दिया, वह भी एक उदाहरण है। अभी हाल में सोशल वेबसाइट्स पर किसी ने रवीश कुमार के चेहरे पर दाढ़ी लगाकर तस्वीर पोस्ट की तो रवीश ने लिखा , भक्तों ने इस तथ्य को आखिर स्वीकार कर लिया कि जो सत्य है, ईमानदार है, वह मुस्लिम भी है।
हम भारत के सच्चे, ईमानदार नागरिक के रूप में पिछले चार सालों से खुद को पेश कर रहे थे। आसिफा की मौत ने मीडिया को भी उदार बना दिया । माडिया ने उन पुलिस और वकीलों को भी निशाना बनाया जो आसिफा को मुसलमान बनाकर पेश कर रहे थे .जम्मुं में बार काउंसिल से जुड़े वकीलों ने बलात्कार के अपराधियों के समर्थन में जुलूस निकला और बयान दिया कि हिंदू ब्लात्कारिओं को पकड़ना सही नहीं है क्योंकि आसिफा मुसलमान थी। इसके विरोध में कई राज्यों में जुलूस निकाले गए। और यहां सब से अधिक प्रतिनिधित्व हिन्दुओं का रहा। गंगा – जमुनी संस्कृति की वापसी हो रही थी..मीडया के साथ देश में जागरूकता की लहर चली थी. केवल एक कांफ्रेंस से वली रहमानी ने मुसलमानों को फिर से उसी हाशिए पर धकेल दिया।
जब मैंने इस सम्मेलन के बारे में सुना तो मेरी पहली आपत्ति थी कि यह नहीं होना चाहिए। कांफ्रेंस से पहले एक पोस्टर मेरी नज़र से गुज़रा, जिसमें नीतीश कुमार भी नजर आ रहे थे, तो मेरा विश्वास पुख्ता हो गया कि कि कोई बड़ी साजिश देश के साथ होने वाली है. मुसलामानों को एक बार फिर मुर्ख बनाया जाएगा। इसके कई कारण थे। नितीश ने बिहार के जनमत को धोखा दिया। नितीश डर गए थे कि लालू यादव की तरह कहीं उन्हें भी जेल नहीं भेज दिया जाए। भाजपा में नीतीश को अपना भविष्य सुरक्षित नजर आ रहा था। भाजपा में शामिल होने के बाद नितीश ने महसूस किया कि भाजपा उनके राजनीतिक जीवन को समाप्त कर सकती है।बिहार के मुसलमान लालू यादव और तेजस्वी के साथ थे। नितीश यह भी देख रहे थे कि 2019 में भाजपा अकेले दम पर चुनाव लड़ती है तो उनकी राजनीतिक पहचान खतरे में पड़ जायेगी। मुसलमानों का वोट तो लालू को जाएगा .शरद यादव अलग उनसे खफा हैं और बिहार में शरद यादव का वोट बैंक भी मजबूत है। हिन्दुओं का वोट भाजपा ले जाायेगी .अब नीतीश ने बीजेपी को डराने के लिए अपने पत्ते खोलने शुरू किए। राजनीतिक दबाव से बाहर निकलना भी आवश्यक था .. यह भी संभव है कि नीतीश ने सोच रखा हो, भाजपा जेल में डालना चाहे तो डाल दे लेकिन वह वही राजनीति करेंगे जो लालू के साथ शुरू की थी। और एक धर्मनिरपेक्ष चेहरे के रूप में जगह बनाई थी।
आने वाले कल में नीतीश भाजपा छोड़ कर फिर लालू के साथ जुड़े होना चाहेंगे तो मुझे विश्वास है, लालू उन्हें मना नहीं करेंगे।लालू की राजनीतिक समझ किसी भी नेता की सोच से अधिक बड़ी है। लालू बदले की राजनीति नहीं करते। नितीश को यह भी खतरा था कि यदि वह भाजपा से अलग होते हैं और कांग्रेस या लालू का साथ नहीं मिलता है तो वे क्या करेंगे? एक उत्तर था कि अगर मुसलमानों के वोट बैंक पर वे काबिज हो जाते हैं तो फिर से राजनितिक परिवर्तन का नया दौर शुरू हो सकता है।
पंद्रह अप्रैल पटना सम्मेलन में बीस लाख मुसलमान जमा हुए। तारीखी जलसा था। इस्लाम पर बात हुई.मुसलमानों की बात हुई। इस्लाम पर भारत में मंडराने वाले खतरे की बात हुई.यही बातें भाजपा के वोट बैंक को मजबूत करती हैं .दो साल पहले दिल्ली में होने वाले सूफी सम्मेलन में मोदी के आगमन पर भारत माता की जय का नारा लगाया गया। इस सम्मेलन का फ़ायदा केवल भाजपा को हुआ .पटना में होने वाले सम्मेलन का फ़ायदा भाजपा भी उठा सकती है और नीतीश भी। अगर नितीश का इरादा भाजपा छोड़ने का नहीं है , तो नितीश एक तीर से कई शिकार कर सकते हैं। । भाजपा में अपनी हैसियत को मज़बूत करेंगे। कांफ्रेंस होने के बाद अचानक पत्रकार खालिद अनवर का नाम सामने आया। दो तस्वीरें वायरल हुई .एक तस्वीर में खालिद, राजनाथ सिंह के साथ हैं। दूसरे में वली रहमानी के साथ हैं.और सम्मेलन वाले दिन ही शाम होने तक यह खबर भी आ गयी कि खालिद अनवर का नाम बिहार विधान परिषद के उम्मीदवारों में शामिल है। वली रहमानी ने अब तक इस ऐतिहासिक बैठक के लिए जो नाम छिपा रखा था, उसकी असलियत सामने आ चुकी थी। यानी यह पूरा नाटक प्रायोजक था। और यह नाटक ऐसे समय में किया गया जब देश में किसी हद तक लोकतांत्रिक मूल्यों की वापसी होने लगी थी। इस एक नाटक ने मुसलमानों के हाथों में फिर से भीख के कटोरे को देने का काम किया।
मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि उनके संरक्षण के लिए हिंदू बहुमत अभी भी उनके साथ है। इस तरह की दुर्घटनाओं से समाज प्रभावित होता है। .और मुसलमान हाशिया पर आ जाते हैं वाली रहमानी ने ऐसा क्यों किया, उन्हें जवाब देना चाहिए। एक प्रश्न और है। मुसलामानों में कोई भी क़ायद ऐसा नहीं जिसे समस्त भारतीय मुसलामानों का समर्थन प्राप्त हो।
एडिटोरियल नोट – दस से ज्यादा नावेल के खालिक, दरजनों आलोचनाओं के लेखक, बीसयों पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले मुशर्ऱफ आलम जौकी की यह निजी राय है. नौकरशाही डॉट कॉम हर पक्ष की आवाज को स्वतंत्र रूप से सम्मान देता है. अगर आप भी इस विषय पर कुछ कहना चाहें तो स्वागत है