15 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान को पाट कर मुसलमानों ने इतिहास रचा. राष्ट्रव्यापी स्तर पर फैले संकटपूर्ण माहौल में वली रहमानी से लोगों ने ठीक वैसी उम्मेदें पाल लीं जैसी देश विभाजन के बाद मौलाना आजाद मुसलमानों के मसीहा बनके उभरे थे. लेकिन देखते ही देखते ये उम्मीदें रेत की दीवार की तरह भरभरा गयीं.
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[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/06/irshadul.haque_.jpg” ]इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम, फॉर्मर फेलो इंटरनेशनल फोर्ड फाउंडेशन[/author]
आजादी के पहले ऐसी भीड़ गांधी मैदान में कभी जुटी या नहीं इसकी जानकारी मुझे नहीं है. पर आजादी के बाद की दो बड़ी रैलियां यादगार हैं. एक- जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण क्रांति की रैली. दूसरी लालू का गरीब रैला. दीन बचाओ देश बचाओ रैली इन दोनों रैलियों के टक्कर की रैली थी. लेकिन याद रखने की बात है कि पहले की दोनों रैलियों में हिंदू-मुस्लिम समेत तमाम धर्मों के लोग मौजूद थे. दीन बचाओ देश बचाओ रैली को देखें तो गांधी मैदान के इतिहास में ऐसी कोई रैली नहीं दिखती, जिसमें एक समुदाय के लोगों ने ऐसी भागीदारी करके तमाम बड़ी रैलियों को टक्कर दे गयी.
याद रखिए सिर्फ धर्म के नाम पर इकट्ठा नहीं थे लोग
यह रैली मुसलमानों के उत्साह और उनके जज्बे के प्रकटिकरण का नायाब नमूना है. इस गलतफहमी में कुछ लोग हैं कि यह भीड़ सिर्फ दीन के नाम पर उमड़ी. दर असल यह रैली मुसलमानों के खिलाफ बढ़े भेदभाव, सरकार द्वारा शरीयत कानून में हस्तक्षेप, मोब लिंचिंग ( भीड़ द्वारा मारे जा रहे लोगों), बिहार के 10 से ज्यादा जिलों में रामनवमी के दौरान दंगा भड़काने की साजिश, मुसलमानों की दुकानों को जला कर खाक करने के सियासी खेल आदि समेत अनेक मुद्दों के खिलाफ भड़के गुस्से के खिलाफ लोग इक्ट्ठा थे. इस रैली में दीन की चाश्नी भी थी और सियासत के दावपेंच भी. इसलिए इस मुद्दे पर बहस करने की जरूरत ही बेमानी है कि लोग दीन के नाम पर जमा हुए थे. याद रखें इस रैली के नाम में अगर दीन( धर्म जड़ा था तो देश भी जुड़ा था- ‘दीन बचाओ -देश बचाओ’ कांफ्रेंस. गोया सियासत घोषित रूप से इसमें शामिल थी, कोई चोरी छुपे नहीं.
रहमानी और उनकी टीम रणनीतिक रूप से करती तो वे सबके सब हीरो बन जाते. बस उन्हें रैली के दौरान यह घोषणा करनी चाहिए थी कि विधानपरिषद चुनाव में हम अपना एक प्रत्याशी स्वतंत्र रूप से खड़ा करेंगे और यह सेक्युलर पार्टियों का इम्ताहन लेंगे कि कौन कौन पार्टी हमारे उम्मीदवार को वोट करती है. इससे नीतीश कुमार और लालू प्रसाद दोनों के लिए संकट और चुनौतियां बढ़ जातीं.
लिहाजा बहस का असल मुद्दा यह है कि आजादी के सत्तर सालों बाद मुसलमानों में लीडरशिप, संगठन क्षमता और राजनीतिक दूरदर्शिता पहली बार दिखी थी. मौलाना रहमानी ने इस रैली के माध्यम से खुद को बिहार के ताकतवर नेताओं- लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के समानांतर खड़ा कर दिया था. यह उस रैली की ताकत से उपजे भय का ही नतीजा था कि नीतीश सरकार ने रैली के तीन दिन पहले बिहार में दो हजार से ज्यादा होर्डिंग टंगवा दी थी. इन तमाम होर्डिंग्स पर बिहार सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए अब तक किये गये कामों का जिक्र था, तो भविष्य की योजनाओं का उल्लेख भी था. आजादी के बाद बिहार में सरकारी स्तर पर कभी इतने होर्डिंग्स एक बार में नहीं लगाये गये जिनका संबंध अल्पसंख्यकों से रहा हो. इतना ही नहीं उर्दू को सरकारी जुबान का दर्जा दिये जाने की घोषणा के बाद भी एक बार में सरकार ने उर्दू में इतने होर्डिंग्स कभी नहीं लगाये. दूसरी तरफ भाजपा को छोड़ तमाम छोटी-बड़ी सियासी पार्टियों के नेताओं, कार्यकर्ताओं ने इस रैली की चपेट से नहीं बचे. सबने मदद की, यहां तक की आर्थिक मदद भी.
इतना ही नहीं भाजपा के अलावा हर दल के शिखर नेता इमारत पहुंच कर अपनी हाजरी लगाने से भी खुद को नहीं रोक सके. कई नेता बिन बुलाये भी पहुंचे. ये सारी चीजें इस रैली की विराटता को साबित करती हैं. पर अचानक रैली के चंद घंटों बाद एक घटनाक्रम सामने आती है. नीतीश कुमार की पार्टी ने विधान परिषद के प्रत्याशियों की लिस्ट जारी करती है. उस लिस्ट में एक नाम उस व्यक्ति का होता है जो दीन बचाओ रैली के मंच का न सिर्फ संचालक था बल्कि इस रैली के संयोजक की भूमिका भी निभा रहा था. यह खबर शाम होते होते जैसे ही फ्लश हुई, मानो इस फैसले ने उन लाखों लोगों को सकते में डाल दिया जो सैकड़ों किलो मीटर के फासले तय करके पटना पहुंचे थे. यह फैसला बाउंस बैक कर गया और सोशल मीडिया में कोहराम मचाने लगा. अचानक लालू व नीतीश के समानांतर खड़ा होने का सामर्थ्य सिद्ध करने वाला नेत बदनामियों की आंधी की जद में आ गया. जिस से आम मुसलमानों ने 21 वी सदी के मौलाना आजाद बनके उभरने जैसी उम्मीदें पाल ली थीं वह घंटे भर में सोशल मीडिया में मौकापरस्त नेता के रूप में आलोचनायें झेलने लगा. लोगों ने इल्जाम लगाना शुरू किया कि इस रैली की कीमत पर महज विधान परिषद की एक सीट के लिए सौदेबाजी कर ली गयी. इसके लिए मौलाना रहमानी कितने जिम्मेदार हैं यह बहसतलब मुद्दा जरूर है लेकिन मौलाना जिस तरह से अपने चंद शागिर्दों से घिरे थे, उन पर भी सवाल उठने लगे.
याद रखिये सियासी रैलियों की कीमत ऐसे भी चुकाई जाती है. लेकिन एक कद्दावर नेता अपनी शर्तों पर सौदाबाजी करे तब उसकी स्वीकार्यता बढ़ती है. मैं समझता हूं कि इसी काम को रहमानी और उनकी टीम रणनीतिक रूप से करती तो वे सबके सब हीरो बन जाते. बस उन्हें रैली के दौरान यह घोषणा करनी चाहिए थी कि विधानपरिषद चुनाव में हम अपना एक प्रत्याशी स्वतंत्र रूप से खड़ा करेंगे और यह सेक्युलर पार्टियों का इम्ताहन लेंगे कि कौन कौन पार्टी हमारे उम्मीदवार को वोट करती है. इससे नीतीश कुमार और लालू प्रसाद दोनों के लिए संकट और चुनौतियां बढ़ जातीं. संभव था दोनों उस उम्मीदवार की हिमायत में आ जाते. अगर नहीं भी आते तो इतना तो तय था कि वली रहमानी में जो लोग मौलाना आजाद जैसी उम्मीदें पाल ली थीं उनकी नजर में वे हीरो बनके उभरते. मौलाना रहमानी शायद अपने शागिर्द के मोह में इस तरह संवेदनशील हो गये या कर दिये गये कि उन्होंने अपनी विराट छवि को धक्का लगवा दिया.
किसी समुदाय के लिए रहनुमा रोज नहीं पैदा हुआ करते. यह अवसर था कि मौलाना रहमानी एक ऐसे ताकतवर कायद बनके उभरते जिनकी शर्तों के आगे तमाम सेक्युलर क्रेडेंशियल की पार्टियां बौनी साबित होतीं. रहमानी ने इस ऐतिहासिक अवसर को गंवा दिया. मुसलमान ठगे-ठगे महसूस कर रहे हैं.