हक की बात: जगहंसाई के बाद होश में आये हुजूर
राष्ट्र के नाम संबोधन पिछले कई महीनों से एक कटाक्ष भरा शब्द बन गया था. नोटबंदी से ले कर कोरोना की पहली लहर तक प्रधान मंत्री ने जब जब राष्ट्र को संबोधित किया, तब-तब देश ने बड़ी आपदा झेली.
ऐसे मेें कोरोना की दूसरी लहर से रोजाना चार लाख लोग संक्रमित और चार हजार लोगों की मौतें होने लगीं. गंगा में संक्रमितों की लाशें बहने लगीं. रेत में सैकड़ों लाशों को दफ्न किया जाने लगा तो दुनिया भर के अखबारों में मोदी की जितनी किरकिरी और फजीहत हुई, शायद ही कभी और हुई हो. ऐसे में प्रधान मंत्री मोदी के पास बोलने के लिए कोई शब्द नहीं था.
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ऐसे में विपक्षी दलों की राज्य सरकारों ने कोरोना वैक्सीन की भारी किल्लत पर केंद्र सरकारों को घेरना शुरू किया. देश के नागरिकों में यह धारणा स्थाई रूप से बनने लगी कि सरकार कोरोना पर बुरी तरह नाकारा साबित हुई. उस पर तुर्रा यह कि दिल्ली से ले कर राज्यों के हाईकोर्ट के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार की वैकसीन नीति की बखिया उधेड़ने शुरू कर दी.
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अदालतों ने तो यहां तक कह दिया कि केंद्र सरकार अपनी वैक्सीन नीति की एक-एक नोटिंग को अदालत के सामने पेश करे. अदालतों ने पूछा कि अलग- अलग राज्यों में वैक्सीन की कीमतें अलग अलग क्यों हैं, इसकी तफ्सील बताये. गोया नरेंद्र मोदी सरकार विपक्षी दलों के प्रहार, अदालतों की फटकार और नागरिकों के बागी तेवर के सामने बुरी तरह पिस रही थी. उधर जगहंसाई तो हो ही रही थी.
ऐसे में मोदी सरकार के सामने, इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि वह देश को वैक्सीन फ्री में उपल्बध कराये. नतीजा हुआ कि पीएम मोदी को ऐलान करना पड़ा और कहना पड़ा कि अब 18 प्लस के तमाम लोगों को फ्री में वैक्सीन दी जायेगी.
लेकिन जैसा कि नरेंद्र मोदी की राजनीतिक शैली है. वह संकट और आपदा को भी अपनी राजनीति का हिस्सा बना देते हैं. उन्होंने इस ऐलान के लिए वही किया जो वह अकसर करते रहे हैं. उन्होंने इस फैसले को सार्वजनिक करने के लिए राष्ट्र के नाम संबोधन का रास्ता चुना. पिछले कुछ वर्षों में उनका यह पहला संबंधोन था जिससे राष्ट्र को बेचैनी नही हुई. उन्होंने एक तरह से उनकी सरकार के प्रति जनाक्रोश को कम करने और लोगों की सहानुभूति बटोरने की कोशिश की है. इस संबोधन में उन्होंने यह जताने की कोशिश की कि सरकार ने यह फैसला ले कर मानवता की बड़ी सेवा की शुरुआत कर दी है.
जबकि हकीकत यह है कि नरेंद्र मोदी की सरकार जनदबाव के आगे लाचार तो थी ही, अदालत की फटकार की तलवार भी उसकी गर्दन पर लटक रही थी.