जदयू सांसद हरिवंश राज्यसभा के उपसभापति चुने गये हैं. वरिष्ठ पत्रकार निराला उनकी पत्रकारिता और राजनीतिक संघर्ष की कुछ झलकियां दिखा रहे हैं.
हरिवंशजी आज देश के एक शीर्ष राजनीतिक पद के लिए चुन लिये गये.. अधिकांश लोग यह जानते हैं कि उनकी राजनीतिक यात्रा पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से शुरू हुई थी, नीतीश कुमार के रास्ते होते हुए यहां तक पहुंची. जयप्रकाश नारायण के गांव सिताबदियारा के दलजीत टोला में जनमे हरिवंशजी के इलाके के जो लोग होंगे, वे ऐसी बात नहीं करेंगे. वे जानते हैं कि वह जो सिताबदियारा का इलाका है, वह घनघोर रूप से राजनीतिक इलाका है. माटी में राजनीति का ही राग है.
अभी सिर्फ उसी इलाके से कुल जमा चार—पांस सांसद हैं देश में. आप कभी जायेंगे उस इलाके में तो मालूम चलेगा कि दियारा के उस इलाके के रहनिहारों के रग—रग में राजनीति कैसे समाया हुआ रहता है. खैर, यह तो एक बात हुई. स्कूली पढ़ाई वहीं हुई तो राजनीति का खादपानी वहीं से मिला. और वहां से जैसे ही निकले, उसका असर दिखने लगा. पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय गये पढ़ने, फिर बनारस के यूपी कॉलेज में आ गये. यूपी कॉलेज के बाद बीएचयू. बनारस में जब पढ़ने लगे तो वहां छात्रजीवन में ही चुनाव लड़े. चुनाव छोटा था लेकिन राजनीति का खादपानी मिला था तो आजमा लिये. और बनारस मे रहते सबसे पहले जुड़े कृष्णनाथजी से. काशी विद्यापीठ में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक थे कृष्णनाथजी और बाद में लोहियाजी के सबसे करीबी हुए. तीन आना बनाम तेरह आना सिद्धांत के सूत्रधार. छात्रजीवन में मौज—मस्ती का दिन होता है लेकिन हरिवंशजी तब कृष्णनाथजी के यहां जाने लगे और फिर राजघाट पर सर्वोदय संघ में. बाद में जब पत्रकारिता में आये और धर्मयुग से जुड़े तो पोलिटिकल रिपोर्टिंग ही ज्यादा करते रहे. रविवार से भी जुड़कर वही करते रहे. बिंदेश्वरी दुबे पर जो रिपोर्ट उन्होंने की थी, उसकी कॉपी ब्लैक में बिकी थी. अब तक उनका सीधा परिचय चंद्रशेखरजी से नहीं हुआ था लेकिन धर्मयुग अपने जमाने की मशहूर पत्रिका थी. सात लाख कॉपी बिकनेवाली पत्रिका तो उसके पॉलिटिकल रिपोर्टर का पूरे देश में परिचय हो जाना स्वाभाविक था लेकिन हरिवंशजी पर उसका असर नहीं पड़ा. बाद में जब वे प्रभात खबर आये तब चंद्रशेखरजी उनको पीएमओ ले गये.
पीएमओ गये हरिवंशजी तो अखबार में भी प्रधान संपादक नहीं बने रहे, छोड़कर गये. लेकिन जब लौटे तो बचपन से मिले राजनीति के खाद—पानी का असर दिखने लगा. प्रभात खबर चूंकि रांची जैसे छोटे जगह से निकलता था इसलिए देश की पत्रकारिता ने उसे नोटिस नहीं लिया लेकिन जिस किस्म की राजनीतिक पत्रकारिता प्रभात खबर कर रहा था या हरिवंशजी कर रहे थे, वह देश में दुर्लभ ही था. झारखंड आंदोलन की लड़ाई तब चल रही थी, हरिवंशजी ने प्रभात खबर को झारखंड आंदोलन के राजनीतिक स्वर को तेज करने का मंच बना दिया. रामदयाल मुंडा,बीपी केशरी, रोज केरकेट्टा से लेकर न जाने कितने लोग झारखंड आंदोलन को अखबार के जरिये मजबूत स्वर देने लगे. उसी वक्त दिल्ली में एक सेमिनार करवाया हरिवंशजी ने. अखबारों की कटिंग का एक कोलाज बनाये. दिल्ली में दक्षिण बिहार के नेताओं को जुटाये, बिहार के नेताओं को जुटाये और दक्षिण बिहार के साथ होनेवाले भेदभाव पर बोलने को बोले. यह उनकी राजनीतिक चेतना थी. एक पत्रकार के रूप में यह उनकी राजनीतिक भूमिका थी.
बाद में अखबार में राजनीतिक रिपोर्टिंग को लेकर जो करते—करवाते रहे, वह तो एक बात है. देश भर में फैले राजनीति के टॉप लोगों से लिखवाना शुरू किये. उनलोगों से नहीं जो बड़े नेता हों, बड़े पद पर हो बल्कि उन लोगों से जो खांटी राजनीति के आदमी हो, सामाजिक राजनीति के आदमी हों. उसी दौरान उन्होंने ‘भारत किधर’ नाम से अखबार की ओर से व्याख्यानमाला शुरू किया. देश की चुनौतियों पर बात करने के लिए. चंद्रशेखर, कामरेड विनोद मिश्रा, दत्तोपंत ठेंगड़ी, सिताराम येचुरी, गोविंदाचार्य,जावेद अख्तर, जस्टिस पीवी सामंत, प्रभाष जोशी, योगेंद्र यादव, लालू प्रसाद यादव, कृष्णनाथ, कृष्णबिहारी मिश्र जैसे लोग आते रहे. देश की राजनीति पर बात होती रही. इन सबसे इतर भी पत्रकार रहते हुए राजनीतिक चेतना दिखती रही. कितने राजनीतिक काम किये, यह भी जानने की चीज है. एक ही उदाहरण देता हूं. 2007—08 में हरिवंशजी ने एक परचा छपाया. गाड़ी के पीछे रखा. परचा क्या था तो यह बताना कि राजनीति से घृणा नहीं कीजिए, राजनेता कोई काम नहीं करता, बुरा है तो उसे बदलिये, यह आपके हाथ में है. वोट डालिये, इस दुनिया में लोकतंत्र से बेहतर कोई मॉडल नहीं है. उस परचा के साथ हरिवंशजी झारखंड के सुदूर इलाके में घूमने लगे. कॉलेज में जाना, विश्वविद्यालयों में जाना, कस्बे में जाना, छोटे—छोटे शहरों में जाना और फिर दिन भर तपती गरमी में घूमने के बाद रात में पास के किसी शहर में भी बोलना.
गले में चूना लग गया था सातवें दिन. बोलने से गला बैठ गया था लेकिन धनबाद, जमशेदपुर,रांची से लेकर तमाम इलाके में यह अभियान उन्होंने चलाया. उस पूरी यात्रा में साथ था तो गवाह था. टूंडी की एक घटना बताता हूं. वहां पहुंचने के बाद एक भी आदमी नहीं थे सुननेवाले. तीन लोग थे. हरिवंशजी को बोला कि क्या बोलिएगा यहां, उनका गला भी फंसा हुआ था लेकिन तीन लोगों के बीच लोकतंत्र, चुनाव आदि पर बोलना शुरू कर दिये. धीरे—धीरे आसपास की दुकानें बंद होने लगी, लोग जुटने लगे. और देखते ही देखते ढेरों लोग. रास्ता में पूछा कि आप तो तीन लोगों के बीच भी बोलने लगे थे सर, उनका जवाब था—जेपी के गांव से हैं न. जेपी लोगों का इंतजार नहीं करते थे. दो लोगों के बीच भी बोलते थे. हम यहां प्रचार कर के थोड़ी आये हैं कि लोग रहेंगे. जहां लोग मिलेंगे, वहीं बोलेंगे. राजनीतिक चेतना पर और बातें फिर कभी. हजारीबाग से लेकर पलामू तक के ढेरों प्रसंग हैं, जिनसे मालूम चलेगा कि वे सक्रिय राजनीति में भले बाद में दिखते हों लेकिन राजनीति तो उनकी रग—रग में रहा है.