-बादल सरोज
पड़ना था ट्रम्प की बांह मरोड़कर टैरिफ कम करवाने की गुण्डई के पीछे ; मुद्दा बनना चाहिए था 144 साल में जैसी नहीं हुई शेयर मार्केट की वैसी गिरावट और छोटे और मंझोले निवेशकों के न जाने कितने लाख करोड़ डूब जाना ; चर्चा होनी चाहिए थी पाताल छूते रोजगार के अवसर और आकाश छूती महंगाई ; मगर भाई लोग चुटिया बाँध, जनेऊ कमर से कसकर उर्दू और औरंगजेब के पीछे पड़े हैं!! इस बार शुरुआत कुम्भ से अभी तक भी पूरी तरह नहीं लौटे योगी जी ने की – उत्तर प्रदेश विधानसभा के बजट सत्र में नेता प्रतिपक्ष ने जब सदन में अंग्रेजी भाषा के उपयोग पर आपत्ति जताई और उर्दू को भी कार्रवाई में शामिल करने की मांग की, तो सीएम योगी आदित्यनाथ भभक उठे और एक साथ अपने नफरती साम्प्रदायिक सोच और देश के बारे में अज्ञान दोनों को उजागर करते हुए हुए कहा कि ये लोग जनता को उर्दू भाषा सिखाकर मौलवी बनाना चाहते हैं। जावेद अख्तर के मिसरे “उर्दू को हम इक रोज मिटा देंगे जहाँ से / ये बात भी कमबख्त ने उर्दू में कही है” को अक्षरशः व्यवहार में लाते हुए उन्होंने अपने कोई साढ़े चार मिनट के हस्तक्षेपी भाषण में खुद तबके, पायदान, अगर, बात, बच्चों, आदी, सरकार, अंदर, दुनिया जैसे उर्दू के नौ शब्द बोले।
बहरहाल इस तरह योगी ने भाषा के आधार पर अपना पुराना नफरती राग फिर से अलापना शुरू कर दिया। इधर मध्यप्रदेश वाला मुख्यमंत्री गांवों के नाम बदलने में जुटा था कि राजस्थान में इसे दूसरे तरीके से आजमाना शुरू कर दिया । योगी के राग उर्दू के चंद रोज बाद ही राजस्थान के बारां जिले में इसी बेअक्ली का और भी जोरदार प्रदर्शन हुआ । शाहबाद कस्बे के महात्मा गाँधी राजकीय विद्यालय में 12वी कक्षा के विद्यार्थियों के लिए होने वाले विदाई समारोह को ‘जश्ने अलविदा’ कहे जाने पर सरकारी नोटिस जारी हो गया । इसे विभागीय निर्देशों के विपरीत बताते हुए जांच शुरू हो गयी । आनन फानन में जयपुर से एक जांच दल “मौका-ए-वारदात” पर भी पहुंच गया।
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गोदी मीडिया ने पैंतरा बदला, राजद और कांग्रेस को लड़ाने की कोशिश
उर्दू, जिसे योगी मुसलमानों की भाषा करार दे रहे हैं, वह ठेठ हिन्दुस्तानी है, जो हिंदवी, रेख़्ता, उर्दू जैसे नामों के साथ धरती के इसी हिस्से पर जन्मी, पली, जवान हुई और क़म्बख्त आज भी बूढ़ी होने को राजी नहीं!! वह उसके एक बड़े हिस्से, खासतौर से हिंदी, मराठी और बंगाली भाषाई इलाकों की बोलचाल का हिस्सा बन चुकी है ; इस कदर कि उसके खिलाफ बोलने वालों को भी उसी भाषा से शब्द लेने पड़ते है। उन्हें नहीं पता कि उर्दू मुसलमानों की जुबान नहीं है! कोई भी हिन्दुस्तानी इसे या किसी भी दूसरी भाषा को किसी धार्मिक सम्प्रदाय के नाम करने के लिए क़तई राज़ी नहीं हो सकता है । यूं भी भाषा किसी धर्म, संप्रदाय, जाति की नहीं होती। वह कई मर्तबा इलाक़ाई होती है जैसे बांग्ला, मराठी, गुजराती आदि भाषाएं हैं, मगर हिन्दी-उर्दू उस तरह की भाषाएँ नहीं हैं । भारतीय उपमहाद्वीप में जहां-जहां हिंदी है, वहां-वहां उर्दू है और जहां-जहां उर्दू है, वहां उसकी हमजोली हिन्दी है। इसलिए इनके संगम को सदा गंगा-जमुनी कहा और माना गया है। दिलचस्प है कि दोनों का नाभि-नाल संबंध अमीर ख़ुसरो से है और दोनों का पालना बृज और अवधी का रहा है।
उर्दू प्रेमचंद, आनंद नारायण मुल्ला, पंडित ब्रज नारायण चकबस्त, रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, राजिन्दर सिंह बेदी, सरदार रतन सिंह, जगन्नाथ आज़ाद, प्रोफ़ेसर ज्ञानचंद जैन, बलबीर सिंह रंग और गोपीचंद नारंग की भाषा है। ये नाम सिर्फ़ लिखते-लिखते याद आए नाम हैं ; फ़ेहरिस्त लम्बी है। क्या इनके अदब को कोई नफरती अज्ञानी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक ख़ानों में बांट सकता है? क्या विख्यात कवियों शमशेर बहादुर सिंह और त्रिलोचन शास्त्री द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू शब्दकोश के लिए दी गई ख़िदमात को नकारा जा सकता है? शमशेर जी ने तो अपने समय की प्रखर पत्रिका दिनमान में ‘उर्दू कैसे सीखें’ जैसे कॉलम चलाए थे, जिससे प्रभावित होकर बड़ी संख्या में लोग उर्दू में आए। क्या प्रकाश पंडित के योगदान को भुलाया जा सकता है, जिन्होंने सारे प्रमुख शायरों की रचनाओं को संपादित कर सस्ती किताबों के रुप में हिन्दी जगत को सौंपा और कई पीढ़ियों को उर्दू के प्रति जागरूक बनाया।
उर्दू किशन चंदर और किशन तलवानी की भाषा रही। गुलज़ार से लेकर क़मर जलालाबादी, नक़्श लायलपुरी और राजदिंर किशन जैसे नामो से फ़िल्मी दुनिया गुलज़ार हुई पड़ी है। कृष्ण बिहारी नूर और शीन क़ाफ़ निज़ाम (मूल नाम श्रीकृष्ण) जैसे नाम शीर्षस्थ उर्दू शायरों में शुमार है। ऐसे उदाहरणों से ग्रन्थ भरे जा सकते हैं, फिलहाल इतने से ही ज़ाहिर हो जाता है कि उर्दू सबकी है, सिर्फ़ मुसलमानों की नहीं। उसे अल्पसंख्यकों की भाषा बनाकर उसका प्रभाव व आयतन कम करना एक क्षुद्र साम्प्रदायिक क़िस्म की हरकत है। उर्दू सारे धर्म, जातियों की चहेती भाषा है। मूलतः धरती के इस हिस्से पर जन्मी भारत की भाषा है । स्वतंत्रता संग्राम की भाषा है। क़ौमी तरानों की भाषा है। साम्प्रदायिक एकता, भाईचारे और सद्भाव की भाषा है।
काज़ी अब्दुल सत्तार, डॉ. मोहम्मद हसन, प्रो. नईम, प्रो. आफ़ाक़ अहमद, जनवादी लेखक संघ को हिन्दी-उर्दू लेखकों का संगठन बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं । जनवादी लेखक संघ के भोपाल में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में उर्दू को लेकर पारित किये गए प्रस्तावों की सारे उर्दू जगत में सराहना हुई। यह महत्वपूर्ण इसलिये है कि सम्मेलन में अस्सी फ़ीसद से ज़्यादा हिन्दी लेखकों की शिरकत थी जिन्होंने उर्दू के फ़रोग़, संवर्धन, रक्षा और सम्मान की शपथ ली थी। जनवादी लेखक संघ मप्र के अध्यक्ष रहे (अब मरहूम) प्रो. आफ़ाक़ अहमद ने कराची के उर्दू अधिवेशन में गर्व से जाकर कहा कि पाकिस्तान के उर्दू लेखक समझ लें कि उर्दू हिन्दुस्तान का मुक़द्दर बन चुकी है। वह इसलिए नहीं कि उसे मुसलमान बोलते है, बल्कि इसलिए कि बहुसंख्यक हिन्दू उससे बेपनाह मोहब्बत करते है, जिन्हें अमीर ख़ुसरो, जायसी, ग़ालिब और इक़बाल उतने ही प्यारे हैं, जितने कि कालिदास, तुलसी, सूर, मीरा या निराला।
हिन्दी ही नहीं, उर्दू साहित्य के इतिहास में भी उर्दू को कभी अल्पसंख्यकों या मुसलमानों की भाषा नहीं बताया गया और न किसी स्कूल या कालेज में ऐसा पढ़ाया गया। यह विभेद उन बुनियाद परस्तों का षड़यंत्र है, जो भाषाई साम्प्रदायिकता इसलिए फैलाते है, क्योंकि उर्दू एक सेक्युलर, धर्म और पंथ निरपेक्ष भाषा है।
योगी जिस मकसद से उर्दू को मौलवी बनाने वाली भाषा कहकर उसे धर्म विशेष से जोड़ रहे हैं, वह सिर्फ उर्दू का ही नुकसान नहीं करती, इस कुनबे ने हिंदी के साथ भी यही सलूक किया है। उनका नापाक इरादा उसमे भी ‘ई’ की जगह ‘ऊ’ की मात्रा लगाने का है ; हिंदी के हिन्दुत्वीकरण का है। स्वीकार्य तो उन्हें हिंदी भी पूरी तरह से नहीं है, उनके हिसाब से धरा के इस हिस्से की एक ही भाषा है, जो उन्हें भाती है और वह संस्कृत है, जो उनके कुनबे में भी किसी की समझ में नहीं आती।
( लंबे आलेख का संक्षिप्त हिस्सा)