बिहार के तेज तर्रार आईपीएस अधिकारी विकास वैभव की पहचान जितना उनके काम को लेकर है, उतना ही उनका मन यायावरी में भी रमता है. यही वजह है कि वे आये दिन अपनी यात्री मन से अपनी यात्राओं का अनुभव शेयर करते रहते हैं. वे कुछ एक उन आईपीएस अधि‍कारियों में से एक हैं, जो सोशल मीडिया पर भी काफी एक्टिव होते हैं, जहां वे अपने अनुभवों व संस्‍मरणों को शेयर करते हैं. अभी हाल ही मे उन्‍होंने लंदन में मिड करियर ट्रेनिंग पूरा किया, जिसके बाद कैंब्रिज विवि को अपने यात्री मन से देखा. तो आईए हम अक्षरश: उन्‍हीं के शब्‍दों में उनके अनुभव को जानते हैं, जो उन्होंने अपने फेसबुक अकाउंट पर शेयर किया है.

नौकरशाही स्‍पेशल

‘कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में यात्री मन ! कैम्ब्रिज के ऐतिहासिक ट्रिनिटी हॉल में एक माह तक भारत एवं ब्रिटेन में चले विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति पर समारोह का आयोजन किया गया था जिसमें भाग लेने के क्रम में वर्तमान काल के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों की श्रेणी में सम्मिलित एवं मध्य काल में स्थापित शैक्षणिक परिसर में संक्षिप्त परिभ्रमण का सुअवसर मिला । अन्तः समाहित उत्कृष्ट शैक्षणिक वातावरण सहित ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण कैम्ब्रिज के भव्य भवन अत्यंत दर्शनीय एवं प्रभावशाली हैं तथा अनेक पूर्व नोबेल पुरस्कार विजेताओं एवं श्रेष्ठतम शोधकर्ताओं के आश्रय केन्द्र रहे हैं । यहां दर्शनाभिलाषी आगंतुकों के लिए सशुल्क भ्रमण की व्यवस्था है जिसमें गाईड द्वारा विश्वविद्यालय के इतिहास एवं विशिष्ट वास्तुकला के बिंदुओं से परिचित कराया जाता है तथा अनेक उल्लेखनीय स्मृतियों को साक्षात अनुभव कराने हेतु उचित स्थानों पर संबंधित प्रसंगों का विधिवत एवं रोचक उल्लेख किया जाता है । शैक्षणिक परिसर के भ्रमणोपरांत नौका विहार की मनोहारी व्यवस्था है जिसे स्थानीय भाषा में “पंटिंग” कहते हैं । निश्चित ही किसी यात्री के लिए यह अनुभव अत्यंत सुखद है ।

ऐसे में विश्वविद्यालय के इतिहास तथा उपलब्धियों की जानकारियों का श्रवण एवं मनन कर मेरे साथ भ्रमण कर रहे अनेक प्रिय भारतीय बंधु हतप्रभ से दिख रहे थे तथा कुछ जहाँ अपने आगमन हेतु भाग्य पर गर्व का अनुभव साझा कर रहे थे, वहीं कुछ तो यहाँ तक कि खुले रूप में अपनी संततियों के कैम्ब्रिज में प्रवेश एवं शिक्षा ग्रहण की प्रार्थना भी करते दिख रहे थे । जब सभी पूर्णतः उत्साहित मुद्राओं में परिसर के छायाचित्र लेकर स्मृतियों को सुदृढ़ कर रहे थे, तब यात्री मन इस चिंतन में डूबा था कि हमारे भारतवर्ष में ऐसे विश्वविद्यालय वर्तमान में क्यों नहीं है और स्वतंत्रता के पश्चात भी जो शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए वे क्यों आज तक ऐसा स्तर प्राप्त नहीं कर सके । मन के विचलित होने का कारण विलुप्तप्राय प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनः स्मरण था जिसमें तक्षशिला एवं नालंदा जैसे उत्कृष्ट विश्वविद्यालय कैम्ब्रिज के सहस्त्र वर्ष पूर्व से ही स्थापित थे तथा राष्ट्र का भौतिक एवं आध्यात्मिक मार्गदर्शन भी करते थे । मन इस चिंतन में विलीन हो उठा था कि जब पाश्चात्य जगत का बौद्धिक उत्कर्ष मुख्यतः मध्यकाल एवं आधुनिक औद्योगिक क्रांति के पश्चात हुआ फिर प्राचीन काल में अन्य राष्ट्रों से सर्वथा अग्रणी एवं उत्थानोन्मुखी बौद्धिक विरासत धारी हमारा राष्ट्र क्यों कालांतर में दिशाभ्रमित हो गया तथा क्यों वर्तमान में भी हमारे बुद्धिजीवियों में वह मूलता एवं स्वतः स्फूर्तपना नहीं दिखता और हम बौद्धिक रूप में भी केवल अन्यों से हतप्रभ हो उनका अनुकरण से करते प्रतीत होते हैं तथा अपनी मूलता को विस्मृत करते जा रहे हैं ।

मन पूर्व इतिहास का स्मरण कर रहा था चूंकि प्राचीनतम काल से ही वैश्विक ज्ञान भंडार को आध्यात्मिकता के साथ-साथ विज्ञान, प्रोद्योगिकी समेत अनेक विषयों के सूत्रों से भारतीयों द्वारा सदैव पोषित एवं वर्धित किया जाता रहा जो उत्तर मध्य काल तक भी भास्कर, सायण एवं अन्य आचार्यों के योगदान से निरंतर अग्रणी रूप में गतिमान रहा । ऐतिहासिक भारत में ऐसे अनेक विदेशी यात्रीयों के आगमन का क्रम भी रहा जिन्होंने भारतीय विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर अपने राष्ट्रों में तथा सर्वत्र बौद्धिक योगदान समर्पित दिया । परंतु इतिहास साक्षी है कि अतीतकाल की सांस्कृतिक बौद्धिक उत्कृष्टता भी समय चक्र में परिवर्तन से प्रभावित हुई तथा सांस्कृतिक पतन की दिशा में राष्ट्र ने असहज रूप में करवट लेना प्रारंभ कर दिया । कुछ देर के लिए मन इस परिवर्तन का कारक मान उन बाह्य आक्रांताओं का स्मरण कर क्रोधित हो रहा था जिनके भारत पर आक्रमण का उद्देश्य केवल राजपद अथवा काषार्पण नहीं होकर तत्कालीन भारतीय संस्कृति का समूल नाश था और जिनके मन में इन प्राचीन विश्वविद्यालयों के प्रति किसी प्रकार का सम्मान भाव नहीं अपितु घृणा भाव का समावेश था जिससे ग्रसित होने के कारण तत्कालीन दुर्बल शासकों की पराजय के पश्चात इन्हें समूल नष्ट कर दिया गया । मन यह सोचने लगा कि यदि कालांतर में बाह्य आक्रांताओं द्वारा ज्ञान के भारतीय प्राचीन केन्द्रों का विध्वंस नहीं किया गया होता तो क्या हमारे राष्ट्र के वर्तमान एवं भविष्य की दिशा विभिन्न नहीं रही होती ?

प्रश्नों से जूझता मन गहन चिंतन करने पर सशक्त रूप से कहने लगा कि वर्तमान दशा के लिए केवल बाह्य आक्रांता ही दोषी नहीं हैं अपितु निश्चित ही हमारी आंतरिक कुछ ऐसी सांस्कृतिक विसंगतियां थीं जो संभवतः वर्तमान में भी विद्यमान हैं जिनके कारण हम प्राचीन मार्ग के स्वाभाविक चरमोत्कर्ष तक नहीं पहुँच सके और आज भी दिशाभ्रमित से प्रतीत हो रहे हैं ।

भारत में इतिहास ने यह सिद्ध किया कि भले ही शास्त्रीय ज्ञान अपने चरम उत्कर्ष पर क्यों न हो, परंतु यदि शस्त्रों के सामर्थ्य में कमी आती है तो उत्कृष्ट शास्त्र भी निश्चित ही नष्ट हो जाते हैं । अपने राष्ट्रीय इतिहास और विशेषकर उन कारणों एवं परिस्थितियों पर जिनके कारण कालांतर में परतंत्रता हमें ग्रसित करने में सक्षम हो सकी, सूक्ष्म विश्लेषण कर गंभीर चिंतन करने से हम अक्सर यह पाते हैं कि जब भी किसी बाह्यजनित चुनौति से राष्ट्र का सामना हुआ तब तत्कालीन राज्याधिकारीयों ने एकत्रित होकर सामूहिक रूप से उसका प्रत्युत्तर नहीं दिया था । हर राजा अपने राजकीय सामर्थ्य के प्रति आश्वस्त तब तक बना रहता जब तक बाह्य आक्रान्ता सीमांत प्रदेशों का उद्भेदन कर संहार करता हुआ और अत्याधिक प्रबल बनता हुआ उसकी सीमाओं तक न पहुंच जाता । हर जनपद अपनी लड़ाई को भिन्न भिन्न लड़ता और पराजित होने पर अक्सर शत्रु से संधि कर जहाँ अपने अधिकारों की कुछ रक्षा करता वहीं अगले जनपद के विरुद्ध शत्रु के युद्ध में तत्स्थ न बन सहभागीता के लिए बाध्य बनता जिससे पराधीनता के संचार की गति बढती जाती और अपने ही बांधवों से पदाक्रान्त होकर मातृभूमि शत्रु के शौर्य के अधीन हो जाती । राजाओं और जनपदों के तुच्छ राजनीति में उलझे रहने के कारण राष्ट्र को बाह्य सम्राटों के अधीन होते इतिहास ने देखा तथा साथ ही निजी तुच्छ स्वार्थों के कारण सांस्कृतिक पराभव की वृत्तियों का भी अनेक क्षेत्रों में बीजारोपण हुआ जिससे राष्ट्र आज भी जूझ रहा है ।

कालजनित विसंगतियां भी केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं रहीं अपितु सामाजिक वर्गों के बीच प्रतिस्पर्धा के रूप में विकसित होती रहीं जिसमें किसी वर्ग विशेष का उत्कर्ष अन्य को शोभ्य प्रतीत नहीं होता था । ऐसे में सामाजिक अनेकता ने हमारे राष्ट्रीय सांस्कृतिक विकास को आंतरिक रूप से ही अवरूद्ध कर दिया जिसका लाभ बाह्य आक्रांताओं द्वारा लिया जाना संभवतः अत्यंत स्वाभाविक क्रम ही था । कभी साम्राज्य रूप में चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त एवं हर्षवर्धन जैसे सामर्थ्यवान शासकों के प्रभाव में फलती फूलती रही विकासोन्मुखी संस्कृति में एक ऐसी तंद्रा ने जन्म लिया जो अंतर्मुखी होकर लघु मानवीय स्वार्थों से ग्रसित होती चली गई । संयुक्त राष्ट्र का स्वरूप भी ऐसे विभिन्न राज्यों में विभाजित होता गया जिनमें शास्त्रवाहकों के सम्यक् मार्गदर्शन के अभाव में शस्त्रों की उपेक्षा की जाने लगी जिससे राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संरक्षण का सामर्थ्य कालांतर में क्षीणता ग्रहण करने लगा ।

अंग्रेजों के आगमन के पश्चात भारतीयों का सामना जब आधुनिक वैश्विक प्रगति की दिशाओं से होने लगा तब तक कालजनित विसंगतियों ने सुरसामुखी रूप धारण कर लिया था और बौद्धिक विकास की धारा चिरकालिक निद्रा में लीन हो चुकी थी । इसे सुसुप्तावस्था से बाहर लाने का प्रयास राजा राममोहन राॅय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद एवं महर्षि अरविंद जैसे विद्वान सुधारकों द्वारा किया गया और समय बीतने पर रमण और रामानुजन जैसे विद्वानों के उदय से भारतीय बौद्धिक परंपरा पुनः जीवित होती दिखने लगी । परंतु संभवतः इस नवीन धारा का विस्तार पूर्वानुकूल व्यापक नहीं था एवं इसमें पूर्व गति की स्मृति अथवा समावेश नहीं था । मकौले आधारित अंग्रेजी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था ने धीरे धीरे भारतीय बौद्धिक उदय को पुनः गतिशील अवश्य किया परंतु उसके मूल स्वरूप को संभवतः परिवर्तित कर पाश्चात्योन्मुखी भी बना दिया । कैम्ब्रिज में मन कह रहा था कि संस्कृति एवं प्रकृति के मूल स्वरूप से आधुनिक युवा वर्ग के कटाव के कारण स्वाभाविक उदय अभी भी प्रभावित है तथा दिशाभ्रम के कारण निर्धारित प्रकाश पुंज से लाभान्वित होने से दूर है ।

मन कह रहा था कि समय महात्मा गाँधी के उस विचार का पुनः स्मरण करने का है कि हमें अपने गृह के द्वारों एवं खिड़कियों को बाहर से वायु प्राप्त करने हेतु खुले रखने चाहिए परंतु साथ ही सतर्क भी रहना चाहिए कि कहीं वायुगमन की गति इतनी तीव्र न हो जाए कि हमें ही उठा ले जाए । वर्तमान जैसा है वह तो यथार्थ है परंतु भविष्य का निर्माण निश्चित ही उसके गर्भ में है । कहा जाता है कि जब कोई राष्ट्र अपने इतिहास से नहीं सीखता तब ऐतिहासिक पुनरावृत्ति के लक्षण पुनः प्रबल होते दिखाई देते हैं ।

इतिहास अनेक तथ्यों और रहस्यों को अपने गर्भ में समेटे हुए है और विरासत हमें पुकार रही है । ऐसे में जब ऐतिहासिक परिदृश्य से परिचित मन कैम्ब्रिज जैसे स्थानों पर पहुँचता है जहां शास्त्र शस्त्रों के प्रभाव में सुरक्षित रहकर उत्कृष्टता प्राप्त करते रहे तब तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला आदि के भग्नावशेषों का मौन संदेश अत्यंत चिंतनरत कर भविष्य के लिए सचेत कर देता है और कहता है कि शस्त्र एवं शास्त्रों में परस्पर तारतम्य सभ्यता एवं संस्कृति के रक्षण हेतु अत्यंत आवश्यक ही नहीं अपितु अवैकल्पिक भी है ।

आवश्यकता आज अपने विरासत पर केवल गौरवान्वित हो प्रशंसात्मक छन्दों के नव सृजन का न होकर पूर्व की उपलब्धियों से सहस्रों गुना अग्रतर एवं सतत् प्रगति की ओर अग्रसर एक नव भविष्य के निर्माण की है जो तभी संभव है जब वर्तमान युवा वर्ग एवं आने वाली नई पीढियाँ इसके निमित्त पूर्णतः संकल्पित हों । आवश्यकता है भारत के भविष्य के प्रति अपने दायित्वों को समझने का तथा लक्ष्यप्राप्ति हेतु एकत्रित हो अपनी ऊर्जाओं के समेकित संचालन का चूंकि पूर्व में इनकी हानि होने पर हम अपने स्वाभाविक सांस्कृतिक उत्थान पथ में पिछड़कर अहितकर अवनति को प्राप्त हुए हैं । हमारे समक्ष चुनौती यह है कि अपनी प्राचीन विरासतों से प्रेरणा लेकर उज्ज्वलतम भविष्य के निर्माण के निमित्त कर्म करें जिसमें यह सुनिश्चित हो कि जिन दोषों एवं त्रुटियों के कारण इतिहास में हमारे स्वाभाविक सांस्कृतिक विकास का ह्रास हुआ उनकी पुनरावृत्ति न हो तथा हम सदैव उनके विषय में सचेत बने रहें । यदि ऐसा कर सकने में सामुहिक रूप से हम सक्षम हो सके तो भला जिस राष्ट्र ने प्राचीनतम कालों में ज्ञान परंपरा के उत्कर्ष का ससमय अनुभव किया हो, उसके उज्ज्वल भविष्य का कौन बाधक हो सकता है ?

कैम्ब्रिज से प्रस्थान के क्रम में मन भारत के बौद्धिक उत्कर्ष हेतु सर्वशक्तिमान से प्रार्थना कर रहा था तथा कामना कर रहा था कि पूर्व काल में स्थापित तक्षशिला एवं नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों की प्रेरणाएं हमारा मार्गदर्शन कर उत्कृष्ट शिखरों तक हमें ले चलें तथा संस्कृति अपना मूल चरमोत्कर्ष निश्चित प्राप्त करे । राष्ट्रीय बौद्धिक विरासत को पुनः स्थापित एवं मूल स्वरूप में देखने की प्रबल इच्छा लिए मन महात्मा गाँधी के वचनों का स्मरण कर ऋग्वेद की ऋचाओं के भाव से आह्लादित हो रहा था –

“आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:”

अर्थात – हमारे लिए (नः) सभी ओर से (विश्वतः) कल्याणकारी (भद्राः) विचार (क्रतवः) आएं (आयन्तु) – (ऋग्वेद , 1-89-1)

जय हिंद !’

By Editor