दिल्ली में भाजपा की शर्मनाक हार के बाद क्या बिहार में नीतीश का पतन तय है?
दिल्ली विधान सभा चुनाव में BJP-JDU गठबंधन की शर्मनाक हार के बाद बिहार के विपक्षी दल RJD को बड़ी ऊर्जा मिली है. उधर अमित-शाह नीतीश की जोड़ी भयभीत है.
[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/06/irshadul.haque_.jpg” ]Irshadul Haque, Editor naukarshahi.com[/author]
पिछले पंद्रह वर्षों से बिहार की सत्ता पर काबिज नीतीश कुमार का जादू अपने चरम विंदु से लुढ़क चुका है. वह जिन मुद्दों के चलते बिहार की बागडोर पर कब्जा जमाये बैठे हैं वह उनके हाथ से छूट रहा है. आइए हम उन 6 कारणों की पड़ताल करते हैं जो इशारा करते हैं कि क्यों नीतीश कुमार के लिए आगामी विधान सभा चुनाव खतरे की घंटी है.
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1.
लालू-राबड़ी सरकार को जंगल राज बता कर, सत्ता में आये नीतीश कुमार के सुशासन का आभामंडल पिछले दो वर्षों में पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है. बिहार में हत्या, हिंसा, फिरौती और साम्प्रदायिक दंगों के सारे रिकार्ड टूट रहे हैं. National Crime Record Bureaue के ताजातरीन आंकड़ें इस बात के गवाह हैं कि बिहार में हत्या, हिंसा और साम्प्रदायिक दंगों के अलावा मॉबलिंचिंग के मामले बढ़े हैं. यही कारण है कि पिछले दो सालों से नीतीश बिहार में ‘सुशासन’ जैसे शब्द का उल्लेख अपने भाषणों में करना बंद कर चुके हैं. पिछले कुछ महीनों में जहां CAA, NPR NRC के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोगों पर पुलिस ने जुल्मड ढ़ाये वहीं मुजफ्फरपुर शेल्टर होम में 39 बच्चियों के साथ संस्थानिक बलात्कार और सृजन जैसे अनेक घोटालों ने नीतीश के भ्रष्टाचारमुक्त शासन की हवा निकाल दी है. इन तमाम मुद्दों पर नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव लगातार हमलावर रहे हैं. अभी हाल ही में तेजस्वी ने बिहार यात्रा के दौरान जो सभायें की उनमें नीतीश कुमार की हरियाली यात्रा की तुलना में कही भी दोगुणा से ज्यादा भीड़ शामिल हुई.यह तेजस्वी की लगातार बढ़ती लोकप्रियता को दर्शाता है.
2.
JDU-BJP का गठबंधन पहली बार बिहार से बाहर दिल्ली में हुआ था. झारखंड में हालांकि नीतीश की पार्टी अलग चुनाव लड़ी थी. लेकिन दिल्ली में पहली बार अमित शाह ने नीतीश कुमार को गठबंधन का सहयोगी बनाया था. लेकिन जिन-जिन विधानसभा क्षेत्रों ने भाजपा का दिग्गजों के साथ नीतीश कुमार ने सभायें की वहां पर जदयू-भाजपा की हार का अंतर 60 हजार वोटों से भी ज्यादा का रहा. झारखंड में तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा सत्ता से बेदखल हो गयी. हालांकि एकीकृत बिहार में 1995-2000 में भी जो झारखंड, भाजपा का गढ़ हुआ कता था भाजपा का वही किला न सिर्फ ध्वस्त हो गया बल्कि खुद मुख्यमंत्री रघुबर दास भी चुनाव हार गये. दूसरी तरफ झामुमो, कांग्रेस व राजद गठबंधन ने जीत हासिल की. राजद का एक विधायक तो मंत्रिमंडल में भी शामिल हुआ. कुछ ऐसा ही चुनाव परिणाम दिल्ली में आया. उसके नतीजे सामने हैं और भाजपा महज 8 सीट जीत सकी.
3
पिछले एक साल में भाजपा ने पांच राज्यों को गंवा दिया है. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र और झारखंड. वहीं हरियाणा व कर्नाटक में भाजपा ने अपनी इज्जत कई हथकंडों के कारण बचा सकी. जहां तक 2019 लोकसभा चुनाव के बाद की बात है तो झारखंड व महाराष्ट्र में भाजपा ने शर्मान हार का सामना किया. जबकि दिल्ली की सत्ता के लिए 30 मंत्रियों, सैकड़ों सांसदों और अकूत सम्पत्ति झोंकने के बावजूद वह बुरी तरह हारी. भाजपा की हार का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा. यह साफ दर्शाता है कि लोकसभा चुनाव के बाद लगातार भाजपा अपना वोट आधार खोती जा रही है. ऐसे में बिहार में उसका डरा-सहमा होना स्वाभाविक है. जहां तक नीतीश कुमार की बात है तो उनका वोट बेस भाजपा पर टिका है. ऐसे में भाजपा का वोट बेस खिसकने का साफ मतलब है कि नीतीश को भी इसका खामयाजा भुगतना पड़ेगा.
4.
2005 और 2010 के दो विधानसभा चुनाव ऐसे रहे हैं जिनमें बिहार के मुसलमानों में लालू प्रसाद के प्रति नाराजगी बढ़ चुकी थी. इस कारण नीतीश का सेक्युलर चेहरा मुसलमानों के वोट खीचने में कामयाब रहा था. लेकिन 2013 आते-आते नीतीश के चेहरे से सेक्युलरिज्म का चोला उतरता चला गया. जिसका सीधा असर 2014 के लोकसभा चुनाव में दिखा. जब नीतीश, भाजपा से अलग हो गये और उनकी पार्टी बुरी तरह से लोकसभा का चुनाव हार गयी. लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने नीतीश को जम कर वोट इसलिए किया था क्योंकि वह राजद के खेमे में आ गये थे. लेकिन 2017 में वह राजद के साथ दगा करके फिर भाजपा से जा मिले. यह नारजगी अभी बनी ही थी कि नागरिकता संशोधन कानून CAA पर केंद्र सरकार को सपोर्ट करके नीतीश ने मुसलमानों की रही-सही सहानुभूति भी गंवा दी. लिहाजा मुसलानों का सपोर्ट अब नीतीश के लिए असंभव सा है. याद रखने की बात है कि दिल्ली में महज 7 प्रतिशत मुसलमान वोटर्स हैं जबकि बिहार में 17 प्रतिशत हैं.
5.
दिल्ली चुनाव परिणाम का एक महत्वपूर्ण विश्लेषण यह है कि यहां पहली बार भाजपा ने अपने साम्प्रदायिक और घृणा से भरे एजेंडे में बुरी तरह मुंहकी खायी है. केजरीवाल को ‘आतंकी’ कहना, ‘गद्दारों को गोली मारना’, और ‘शाहीन बाग को करंट लगाना’, ‘दिल्ली को इस्लामी स्टेट बनने का खौफ दिखाना’ ये तमाम बयान राष्ट्रीय स्तर के नेताओं यहां तक की अमित शाह जैसे टॉप लीडरों द्वारा दिये गये. इसके बावजूद दिल्ली की जनता ने नफरती और जहरीले बयानों पर’ टस से मस नहीं हुई. दिल्ली के वोटरों ने भाजपा के नफरती सियासत को दुत्कार दिया. ऐसे में बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा का यह प्रयोग यकीनन काम नहीं आने वाला. क्योंकि बिहार के विधानसभा चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि यहां की सायासत जाति से ज्यादा प्रभावित होती है, साम्प्रदायिकता से कम. ऐसे में बिहार में BJP-JDU की राह इस बार सबसे कठिन होने वाली है.
6.
पिछले एक दशक में बिहार के चुनाव परिणाम का दारोमदार काफी हद तक अतिपिछड़ी जातियों पर निर्भर करने लगा है. पंचायतों में अतिपिछड़ों को आरक्षण और राजनीतिक हिस्सेदारी की बदौलत नीतीश कुमार की तरफ अतिपिछड़ी जातियों ने जम कर वोटिंग की है. इस मामले में राजद लगातार पिछड़ता चला गया है. 2019 लोकसभा चुनाव में राजद के खाता न खुल पाने की एक महत्वपूर्ण वजह भी यही रही है. तेजस्वी यादव ने अपनी इस कमी को भलिभांति समझ लिया है. यही कारण है कि तेजस्वी ने कुछ महीने पहले ही घोषणा कर दी थी कि संगठन और सत्ता दोनों में अतिपिछड़ों की नुमाइंदगी बढ़ायेंगे. हाल ही में राजद पुनर्गठन के नये प्रयोग पर अमल करने का साहस दिखाया है. प्रखंड से ले कर जिला स्तर तक राजद के अध्यक्ष पदों पर 20 प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी अत्यंत पिछड़ों को सौंपी गयी है. विधान सभा के टिकट बंटवारे में भी राजद इसी फार्मुला पर अमल करने वाला है. तेजस्वी के इस प्रयोग का गांव-गांव में असर भी दिखने लगा है. राजद के इस प्रयोग से नीतीश कुमार के खेमे में इसी लिए हलचल मचा है. अगर राजद ने इस पर मजबूती से अमल किया तो इस बातकी पूरी संभावना है कि इसका खामयाजा भी नीतीश कुमार को भुगतना पड़ सकता है.
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