अमित शाह की बिहार यात्रा से 72 घंटे पहले जदयू द्वारा कार्यकारिणी की बैठक में भाजपा के खिलाफ हवा में चाबुक चमकाना और लगे हाथों प्यार भी छलकाने की अंतर्कथा अब दिलचस्प मोड़ पर पहुंचती जा रही है.
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
लेकिन हवा में उसकी इस चाबुकबाजी में कितनी चोट है और भाजपा पर इसका क्या प्रभाव पड़ सकता है, खुद जदयू को नहीं मालूम. राजनीति की भाषा में इसे ‘प्रेसर गेम’ कह सकते हैं. तो गोया यह सारा मामला प्रेसर गेम का हिस्सा है.
एक कदम आगे, दो कदम पीछे
जदयू भाजपाई राजनीति की लाइन से अलग यह दिखाने की चेष्टा कर रहा है कि वह अल्पसंख्यक व दलित के हित को तरजीह देगा. वह परोक्ष रूप से नवादा के दंगाइयों से सहानुभूति दिखाने के लिए जेल जा कर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह की कड़ी आलोचना का प्रस्ताव पारित करता है तो जयंत सिन्हा द्वार मोब लिंचिंग के आरोपियों के प्रति हमदर्दी जताने को गलत भी ठहराता है. कार्यकारिणी में जदयू यह फैसला लेता है कि वह आगामी विधान सभा चुनावों में भाजपा शासित राज्य मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ सरीखे राज्यों में चुनाव लड़ेगा. साथ ही गैर मुस्लिमों की ( पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से आने वाले) नागरिकता बिल पर भाजपा का विरोध भी करेगा. बजाहिर ये फैसले भाजपा को चाबुक दिखाने सरीखे हैं. हालांकि ये तमाम मुद्दे ऐसे हैं जिस पर जदयू का स्टैंड खुद दागदार रहा है. कभी मोदी को साम्प्रदायिकता का प्रतीक बता कर अलग हो जाना और दूसरे ही पल मोदी की गोदी में कूद पड़ने में देर न करना. इतना ही नहीं, नोटबंदी जैसे राष्ट्रीय अपराध को सबसे पहले समर्थन देना और मौका आने पर उसी नोटबंदी पर सवाल खड़ा कर देना. ये ऐसे मुद्दे हैं जो जदयू के प्रेसर गेम का हिस्सा रहे हैं. लिहाजा ऊपर के तमाम मुद्दों पर, यह मान लेना कि जदयू का यह स्टैंड स्थाई रणनीति का हिस्सा हैं, सही नहीं है. प्रेसर गेम की यह सारी कवायद आगामी लोकसभा व विधानसभा चुनावों में सीट शेयरिंग को ले कर है. हालांकि राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा व जदयू के बीच 2019 के लोकसभा, व 2020 के विधानसभा चुनावों की सीटों के बंटवारे का काम 26 जुलाई 2017 के पहले ही हो चुका है, जब जदयू ने रातोंरात, राजद से अलग हो कर भाजपा संग सरकार बना ली थी. ऐसे में अब जो जदयू दिखावे की चाबूकबाजी कर रही है, वह दर असल अपने ही जाल में फंस कर हांफने के कारण हवा में चाबुक चलाने जैसा है.
माना जा रहा है कि अंदरखाने में भाजपा ने जदयू को यह इशारा दे दिया है कि लोकसभा में दो सीटों वाले जदयू को उसकी औकता जितनी सीटें ही मिलेंगी. इस कयासआराई की सच्चाई चाहे जो भी हो, पर माना जा यह भी जा रहा है कि जदयू के साथ 26 जुलाई 2017 के पहले किये वायदे से भाजपा मुकर जाना चाहती है. इसका आभास जदयू को हो चुका है इसी लिए वह इस प्रेसर गेम का सहारा ले रहा है.
प्रेसर गेम
एक तरफ कार्यकारिणी की बैठक के बाद जदयू के वरिष्ठतम प्रवकता केसी त्यागी पत्रकारों के सामने, एनडीए के साथ रह कर चुनाव लड़ने की कसमें खा रहे हैं तो दूसरी तरफ भाजपा के खिलाफ मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों में चुनाव लड़ने का नया सिगूफा छोड़ रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि उन प्रदेशों में जहां जदयू का वजूद नहीं, वहां चुनाव लड़ने की बात उसी प्रेसर गेम का हिस्सा है कि अगर बिहार में उसके साथ सीटों के बंटवारे में इंसाफ न हुआ तो वह भाजपा के खिलाफ, भाजपा शासित उन राज्यों में चुनाव लड़के उसे नुकसान पहुंचायेगा.
दिल्ली में आयोजित होने वाली जदयू राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उठाये गये मुद्दे पर पार्टी चाहे जितनी पर्दादारी से काम ले, लेकिन अब इस बात से पर्दा उठ चुका है कि दोनों पार्टियों के बीच रस्साकशी चरम पर है.
उधर जदयू के मामले में कांग्रे व राजद ने जो पॉलिसी अपनाई है वह भी कम दिलचस्प नहीं है. राजद के नेता तेजस्वी जिस तरीके से, और जितनी मजबूती से कह रहे हैं कि वह जदयू को महागठबंधन में शामिल नहीं करेंगे, उसके पीछे उनकी रणनीति संभवत: यह है कि वह जदयू और भाजपा के बीच के तनाव को और हवा देना चाहते हैं. जबकि इसी समय कांग्रेस, महागठबंधन में जदयू के स्वागत करने वाला बयान दे कर यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि राजद व कांग्रेस के बीच, नीतीश को ले कर टकराव की स्थिति है, जबकि ये दोनों दल भी बाहर से प्रेसर गेम ही खेल रहे हैं.
मानना पड़ेगा कि नीतीश राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं. लेकिन किसी माहिर खिलाड़ी का हर दाव , कामयाब दाव साबित हो, यह कत्तई जरूरी नहीं है. इसका एहसास खुद नीतीश कुमार को भी है. क्योंकि इससे पहले नीतीश के अनेक दाव भयावह रूप में उलटे पड़ चुके हैं. मांझी को सीएम बनाना और भाजपा 2013 में भाजपा से अलग हो जाने के नतीजों को नीतीश कभी नहीं भूल सकते. लिहाजा नीतीश काफी बारीकी से अपनी सियासत के दांव इस बार चलना चाहते हैं.