मेयर चुनाव में साहू की जीत क्या महागठबंधन की तीसरी हार है?
पटना मेयर चुनाव में सीता साहू की जीत को भाजपा की जीत मानना गलत नहीं होगा। तो क्या इसे गोपालगंज, कुढ़नी के बाद महागठबंधन की तीसरी हार मानी जाए?
पटना के मेयर चुनाव में सीता साहू ने भारी अंतर से जीत हासिल की है। इनकी जीत पर भाजपा समर्थकों में खुशी देखी जा रही है। भाजपा के कार्यकर्ताओं ने संगठित तरीके से सीता साहू के लिए काम किया। मुहल्लों में बैठकें की और जन संपर्क का कार्य किया। जहां सीता साहू कभी नहीं गई होंगी, वहां भी उनके पोस्टर पहुंच गए। भाजपा कार्यकर्ता यह संदेश नीचे तक पहुंचाने में कामयाब रहे कि सीती साहू ही भाजपा की अघोषित प्रत्याशी है। इसके विपरीत महागठबंधन से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े प्रत्याशी के लिए कोई संगठित कार्य नहीं किया गया। हर प्रत्याशी ने अपने दम पर काम किया। नतीजा सबके सामने है। अघोषित रूप से भाजपा समर्थित सीता साहू ने चुनाव जीत लिया।
बिहार निकाय चुनाव दलीय आधार पर नहीं हुआ है, लेकिन राजनीतिक दलों से जुड़े प्रत्याशी मैदान में थे, यह भी छिपा नहीं है। पटना मेयर चुनाव में सीता साहू की जीत की दो बड़ी वजहें हैं। पहला, पटना शहर में पहले से भाजपा का मजबूत आधार रहा है। यहां के सारे विधायक और सांसद भाजपा के ही हैं। उनकी जीत के पीछे दूसरी वजह है भाजपा के कार्यकर्ताओं ने भी सक्रियता से मेयर चुनाव में काम किया। जिस तरह भाजपा विधानसभा चुनाव में तैयारी करती है, उसी तरह की तैयारी नीचे तक दिखती है।
इसके विपरीत महागठबंधन की हार की भी दो वजहें हैं। पहला, महागठबंधन में शामिल दलों का जनाधार पटना में पहले से ही भाजपा की तुलना में कमजोर है। और हार की दूसरी वजह है महागठबंधन ने कोई संगठित प्रयास नहीं किया। जदयू से जुड़ी तीन प्रत्याशी थीं। कमल नोपानी, जो जदयू के व्यावसायिक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष हैं, उनकी पत्नी सरिता नोपानी, रुचि अरोड़ा तथा जदयू नेता बिट्टू सिंह की पत्नी। जदयू ने किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में कोई इशारा नहीं किया। किसी को सर्वसम्मत प्रत्याशी बनाने का प्रयास नहीं किया। राजद से जुड़े भी कई प्रत्याशी थीं। इनमें महजबीं प्रमुख हैं। जदयू-राजद ने कोई समन्वित प्रयास नहीं किया। इस तरह महागठबंधन की रणनीतिक भूल तो कहा ही जा सकता है। अगर महागठबंधन ने रणनीति बना कर किसी एक प्रत्याशी के पक्ष में माहौल बनाया होता, तो संभव है परिणाम कुछ और होता। अगर सीता साहू जीतती, तो भी अंतर 60 हजार मतों का नहीं होता और संघर्ष दिखता।
पटना मेयर पद का अपना महत्व है। भले ही चुनाव दलीय नहीं होता, लेकिन इससे दलों का लाभ-हानि तो तय होता ही है। इसीलिए मेयर चुनाव में महागठबंधन के प्रति झुकाव रखनेवाले प्रत्याशी का न जीतना गोपालगंज, कुढ़नी के बाद तीसरी हार के रूप में देखा जा सकता है।
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