मरहूम मोहम्मद रफ़ी भारतीय फिल्म संगीत की वह अज़ीम शख्सियत थे जिनकी आवाज़ की शोख़ियों, गहराइयों, उमंग और दर्द के साथ देश की कई पीढियां जवान और बूढ़ी हुईं !
ध्रुव गुप्त
उनकी जादुई आवाज़ और जज़्बों की रूहानी अदायगी ने हमारी मुहब्बत को लफ्ज़ बख्शे, सपनों को पंख दिए, शरारतों को अंदाज़ और व्यथा को बिस्तर अता की। आवाज़ की गहराई, ऊंचाई और विविधता ऐसी कि प्रेम की असीमता से वैराग्य तक, अध्यात्म की ऊंचाईयों से मासूम चुलबुलापन तक, ग़ालिब की ग़ज़ल से कबीर के पद तक, लोकगीत से लेकर कव्वाली तक – सब एक ही गले में समाहित हो जाय।
अमृतसर के पास कोटला सुल्तान सिंह में बड़े भाई की नाई की दुकान से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे लोकप्रिय आवाज़ तक का उनका सफ़र सोचने पर किसी परीकथा जैसा लगता है।
सुनिये– ये जो चिलमन है, दुश्मन है हमारी
https://www.youtube.com/watch?v=DWtK2AZ-HdQ
1944 में पंजाबी फिल्म ‘गुल बलोच’ के गीत ‘सोनिये नी, हीरीये नी’ से छोटी सी शुरूआत करने वाले रफ़ी की आवाज़ को संगीतकार नौशाद और शंकर जयकिशन ने पहचाना, निखारा और बुलंदी दी। हिंदी, मराठी, तेलगू, असमिया, पंजाबी और भोजपुरी भाषाओं में छब्बीस हजार से ज्यादा गीतों को अपनी आवाज़ देने वाले इस सर्वकालीन महानतम गायक और सदा हंसते चेहरे वाली बेहद प्यारी शख्सियत मोहम्मद रफ़ी को उनके यौमे पैदाईश (24 दिसंबर) पर खिराज़-ए-अक़ीदत, उन्हीं के गाए एक गीत की पंक्तियों के साथ !
लोग मेरे ख़्वाबों को चुराके
डालेंगे अफ़सानों में
मेरे दिल की आग बंटेगी
दुनिया के परवानों में
वक़्त मेरे गीतों का खज़ाना ढूंढेगा
मुझको मेरे बाद ज़माना ढूंढेगा