नीतीशजी! सवाल पूछने पर आपा खोना,तानाशाही है या चिड़चिड़ापन?

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Irshadul Haque, Editor naukarshahi.com

नीतीश कुमार की पहचान एक संयमित नेता की रही है. बातों को तर्कों के साथ पेश करना, जरूरत से न ज्यादा बोलना, न कम. शब्दों के चयन में सावधानी बरतने के मामले में भारतीय राजनीति में नीतीश कुमार चंद राजनेताओं में शुमार किये जाते रहे हैं. लेकिन नीतीश कुमार की ये खूबियां अब पुरानी बातें रह गयी हैं.

शुक्रवार को नीतीश कुमार ने जिस तरह से एक पत्रकार के सवाल पर आपा खोया. और जिस तरह से एनडीटीवी के पत्रकार मनीष पर उखड़े, ऐसा लग रहा था जैसे उनकी आंखों में खून उतर आया हो. मनीष का सवाल बस इतना था कि राज्य में कानून व्यवस्था चरमरा गयी है. इंडिगो के स्टेशन मैनेजर रुपेश सिंह की हत्या और कुछ अन्य अपराध पर सवाल किये गये थे. नीतीश ने जवाब में सुना दिया कि आप किसके समर्थक हैं. पति-पत्नी के राज में कितना अपराध होता था. जरा इस पर खबर चलाइए. आप जिसके समर्थक हैं उनको सलाह दीजिए. नीतीश का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था. ऐसा लग रहा था कि पत्रकार ने सवाल पूछ कर अपराध कर दिया है.

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लोकतंत्र में सरकार से सवाल पूछना, लोकतंत्र की शक्ति है. सरकार से सवाल न पूछना, या पूछने का साहस करना तो तनाशाही तंत्र में ही देखा जाता है. तो क्या नीतीश कुमार लगातार 15 वर्षों से शासन में रह कर तानाशाही प्रवत्ति के शिकार हो गये हैं? या फिर यह उन पर आ रही बुजर्गी का असर है, जब कुछ लोग चिड़चिड़े हो जाते हैं?

मुझे लगता है कि नीतीशजी पिछले वर्ष जून-जुलाई से बात बे बात उखड़ जाने की नयी पहचान के शिकार होते चले गये हैं. पिछले वर्ष जून-जुलाई में कोरोना संक्रमण के भयावह दौर से देश गुजर रहा था. तब यह खबर मीडिया में आयी गयी रह गयी थी कि नीतीश कुमार के आवास के अनेक कर्मी और यहां तक कि उनकी भतीजी कोरोना संक्रणित हुए थे. तब नीतीश कुमार ने सरकारी आवास खाली कर दिया था. हालांकि कभी आधिकारिक तौर पर यह नहीं बताया गया था कि नीतीश कोरोना से संक्रमित हुए थे या नहीं. लेकिन वह बीमार जरूर हुए थे. तभी से नीतीश कुमार कुछ ज्यादा ही चिड़चिड़े स्वभाव के हो गये हैं.

नीतीश कुमार के चिड़चिड़ेपन से पहला विवाद तब शुरू हुआ था जब उन्होंने बाहर से आ रहे बिहारी कामगारों को बिहार में घुसने न देने का फरमान जारी कर दिया था.

इसी तरह 2020 के विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान किसी न किसी सभा में नीतीश आम लोगों पर उखड़ जाते थे. यू कहिये कि तिलमिला जाते थे. और उन लोगों पर सीधा हमलावर होते हुए कहते थे कि “तुम्हें किसने भेजा है. मुझे मालूम है. तुम हो कितने? देख लो अपने अगल बगल.”

ऐसे हालात लगातार चुनाव के दौरान नीतीश की रैलियों में बनते थे. जब वह भाषण के दौरान वहां मौजूद उन लोगों पर बरस पड़ते थे जो नीतीश मुर्दाबाद के नारे लगाते थे. या विकास के कार्यों पर उनसे सवाल करने लगते थे.

दर असल नीतीश के साथ अब दो तरह की समस्या मैं देख रहा हूं. एक तो तीखे सवालों को सहन न करने की उनकी आदत तब से है जब से उनकी पकड़ सत्ता पर मजबूत हुई थी. वह वैसे पत्रकारों को कभी पसंद नहीं करते जो उनसे तीखे सवाल करते हों. उनके इर्द-गिर्द ऐसे पत्रकारों की टोली बढ़ गयी जो सवाल नहीं करते, बस नीतीश कुमार की बातों में हां में हां मिलाना ही पत्रकारिता समझते हैं. ये वैसे पत्रकारों का समूह है जो सवाल पूछने वालों के सवाल पर हंस कर सवाल को दबा देने की कोशिश करते हैं. और ऐसे सवालों पर पत्रकारों की हंसी, नीतीश कुमार के लिए ढ़ाल बन जाती रही है. लेकिन पिछले कुछ सालों में हालात बदले हैं. ज्यादातर अखबार और चुनिंदा टीवी चैनलों में वाहवाही के दौर को इंटरनेट मीडिया के बढ़ते प्रभाव औऱ सोशल मीडिया पर लगातार उठते सवालों ने एक तरह से रौंद डाला है. अब नीतीश सीधे सवालों की जद में आ ही जाते हैं.

2020 के चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी का बुरा प्रदर्शन भी उनके चिड़चिड़ेपन का कारण हो सकता है.2005 से लगातार सत्ता में रहते हुए उनकी पार्टी सबसे ताकतवर पार्टी रही है. लेकिन 2015 से लगातार उनकी पार्टी पतन की शिकार होती जा रही है. 2015 में वह दूसरे नम्बर पर थे जबकि 2020 में उनकी पार्टी तीसरे नम्बर पर खिसक गयी. लेकिन हर हाल में सत्ता की बागदोड़ उनके हाथ ही रही है.

हमारा मानना है कि सत्ता नशा नहीं बननी चाहिए. सत्ता अगर नशा बन जाये तो अच्छे-बुरे का फर्क मिटने लगता है. तो क्या नीतीश कुमार तीखे सवालों से तिलमिला इसी लिए जा रहे हैं कि वह सत्ता के आदी हो गये हैं?

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