उच्चतम न्यायालय ने वित्त विधेयक 2017 को मनी बिल के रूप में पारित कराये जाने का मामला बुधवार को वृहद पीठ के सुपुर्द कर दिया तथा कहा कि केंद्र सरकार द्वारा न्यायाधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति और सेवा शर्तों में परिवर्तन गलत है।
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एन वी रमन, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की संविधान पीठ ने बहुमत के फैसले में कहा कि वित्त विधेयक 2017 को मनी बिल के रूप में पारित किए जाने की कानूनी वैधता का मामला वृहद पीठ निपटाएगी।
शीर्ष अदालत ने वित्त विधेयक 2017 को मनी बिल के रूप में राज्य सभा में पारित कराए जाने के बाद दायर कई याचिकाओं को वृहद पीठ को सौंप दिया। अब इस मामले की सुनवाई कम से कम सात सदस्यीय संविधान पीठ करेगी।
न्यायालय ने, हालांकि, न्यायाधिकरणों में नियुक्तियों, बर्खास्तगी और सेवा की शर्तेँ आदि तय करने के केंद्र के अधिकारों से संबंधित वित्त विधेयक 2017 की धारा 184 को बहाल रखा, लेकिन न्यायाधिकरणों, अपीलीय न्यायाधिकरण (योग्यता, अनुभव, सदस्यों की सेवा शर्तें) संबंधी नियम को निरस्त कर दिया। इस नियम के तहत केंद्र सरकार ने न्यायाधिकरणों के सदस्यों की नियुक्तियों एवं सेवा शर्तों में बदलाव किया था, जिसे संविधान पीठ ने निरस्त करते हुए उसे (केंद्र को) फिर से नियम तैयार करने का निर्देश दिया।
न्यायालय ने अपने अंतरिम आदेश में कहा कि न्यायाधिकरणों की नियुक्ति, उनकी सेवा की शर्तों में तबतक कोई बदलाव नहीं होगा जब तक नये कानून बना नहीं लिये जाते हैं। शीर्ष अदालत ने केंद्र से कहा कि वह इस बाबत नया कानून बनाये, जो अदालत के नये फैसलों के माकूल हो।
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि न्यायाधिकरण के चेयरपर्सन उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बराबर संवैधानिक अधिकार नहीं रखते हैं। अदालत ने न्यायाधिकरणों के न्यायिक प्रभाव की समीक्षा किये जाने की भी आवश्यकता जतायी। न्यायालय ने केंद्र सरकार को विधि आयोग के साथ मिलकर इससे जुड़े कानूनों के अध्ययन का निर्देश दिया।