रंगा सियार हैं कुशवाहा, चुनाव आते ही संघी आत्मा जागी : RJD

RJD ने पंचतत्र की कहानी के जरिये उपेंद्र कुशवाहा पर तीखा वार किया। रंगरेज के टब में रंग था, जिसमें सियार गिरा, तो उसका रंग बदल गया। फिर राजा बन गया, लेकिन..

राजद ने उपेंद्र कुशवाहा को रंगा सियार घोषित किया है। पंचतंत्र की कहानी के माध्यम से पार्टी ने कुशवाहा पर तीखा हमला किया और कहा कि जिस तरह रंग बदल कर सियार जंगल के जीवों का राजा बन बैठा था, लेकिन बरसात में भीगते ही रंग उतरा तो सारा भेद खुल गया। फिर क्या हुआ, सब जानते हैं। वही हाल उपेंद्र कुशवाहा का है। वे नकली समाजवादी हैं। चुनावी बरसात आते ही उनका रंग उतर गया और सबने देखा कि उनके भीतर की संघी-सांप्रदायिक आत्मा जाग उठी।

राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रो.सुबोध कुमार मेहता ने 2004 में उपेंद्र कुशवाहा को बिहार विधानसभा का नेता प्रतिपक्ष नीतीश कुमार जी ने बनाया। लेकिन इसके अगले फरवरी, 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्हें रामलखन महतो से करारी हार मिली और वे तीसरे स्थान पर चले गए। नवंबर, 2005 के चुनाव में भी तीसरे स्थान पर रहे। उन्होंने पूर्व मंत्री स्वर्गीय तुलसीदास मेहता और आलोक कुमार मेहता की छवि धूमिल करने के लिए षड्यंत्र रचा और आलोक के उनके अपने छोटे भाई को चुनाव में खड़ा कर दिया। जब रामलखन महतो जदयू में आ गए तब उपेंद्र कुशवाहा ने 2006 में जदयू छोड़ दिया और एनसीपी का दामन थामा। बाद में नई पारी की घोषणा की।

26 नवम्बर 2009 को वे फिर जदयू में शामिल हुए और नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेजा। 2012 में कुशवाहा ने राज्यसभा से त्यागपत्र दिया और नीतीश कुमार को भला बुरा कहते हुए गांव-गांव जाकर जनता से माफी मांगी और शपथ ली कि अब नीतीश कुमार के साथ जीवन में कभी नहीं जाएंगे।राष्ट्रीय लोक समता पार्टी बनाई। 2014 के आम चुनाव में वे एनडीए के गठबंधन में शामिल हुए और केंद्र सरकार में मंत्री बने । 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में रालोसपा को 23 सीटें मिली जिसमें से लगभग एक दर्जन इन्होंने ऐसे प्रत्याशी दिए जो चुनाव से पहले कभी रालोसपा के सदस्य भी नहीं थे। 10 दिसम्बर 2018 को इन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दिया और एनडीए को छोड़ दिया। 2019 के आम चुनाव में महागठबंधन ने इनको 5 सीटें दीं जिनमें से 4 सामान्य और एक आरक्षित थीं जिसमें से 2 पर वे खुद प्रत्याशी बने और 2 प्रत्याशी ऐसे दिए जो कभी रालोसपा के सदस्य भी नहीं थे।

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले इन्होंने इल्जाम लगाना शुरू कर दिया कि महागठबंधन कम सीटें दे रहा है। तब पार्टी के वरिष्ठ साथियों ने महागठबंधन में रहने की बात की ताकि कुछ महत्वपूर्ण साथी विधानसभा में जीत कर पहुँचे।लेकिन उपेंद्र ने एक अलग ही रास्ता अपनाया और महागठबंधन को छोड़ नया फ्रंट बनाया और सामाजिक क्रांति के मूल्यों के साथ खिलवाड़ कर उसे गहरा आघात पहुँचाया जिसका शर्मनाक नतीजा यह हुआ कि पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई।

बिहार विधानसभा के चुनावों के तीन महीने के बाद ही उपेंद्र जी के कथनानुसार उन्होंने रालोसपा का विलय जदयू में कर दिया। नीतीश कुमार जी ने उन्हें तीन पद दिए, पहला एमएलसी, दूसरा संसदीय बोर्ड की अध्यक्षता और तीसरा एक प्रादेशिक बोर्ड की सदस्यता। क्या इस समय उपेन्द्र की मति मारी गयी थी जो आज उन्हें समाजवाद के मूल्य याद आ रहे हैं। पिछले लगभग दो दशकों की राजनीति का अवलोकन किया जाए तो पता चलता है कि इन्होंने केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की राजनीति करते हुए अनगिनत युवाओं के सपनों को कुचल दिया । इन्हें इसका मूल्यांकन करना चाहिए।

आज फिर जब चुनाव करीब है तो उपेंद्र फिर से समाजवाद का नकली रंग चढ़ा कर नई पार्टी लेकर तैयार हैं। निश्चित ही वे फिर से युवाओं को धोखा देकर तोड़ने का नया षडयंत्र रच रहे हैं।

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By Editor


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