-इं राजेंद्र प्रसाद

देवेंद्र सिंह व अन्य बनाम पंजाब सरकार व अन्य के वाद में सुप्रीम कोर्ट की 7 सदस्यीय संविधान पीठ के 6-1 के बहुमत से 1 अगस्त 2024 को आए फैसले के निष्कर्ष यह है कि

अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में राज्य सरकारें उप वर्गीकरण कर सकती हैं। क्रीमीलेयर लगा सकती है और आरक्षण एक पीढ़ी को ही दिया जाय।

उच्चतम न्यायालय  का यह आदेश बिना आंकड़ों और तथ्यों को जुटाए दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत ऐसे संवैधानिक विषयों पर संसद को ही फैसला लेने का संवैधानिक प्रावधान है।  पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने 2004 में अपने आदेश में वर्गीकरण को असंवैधानिक ठहराया था। और इसे संसद के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत माना था।

(संविधान में यह बात स्पष्ट तौर पर लिखी गई है कि अनुच्छेद 341 व 342 के द्वारा अधिसूचित अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की  सूची में जिन जातियों को शामिल किया गया है उसमें राज्य सरकारों द्वारा कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। यह बदलाव केंद्र सरकार भी नहीं कर सकती है। संविधान में अनुसूचित जाति को एक समूह (होमोजीनस) वर्ग के बतौर चिंहित किया गया है। जो उप जातियां जिस भी स्तर की हों उन्हें सामूहिक रूप से छुआ-छूत के दंश को झेलना पड़ता है और आदिवासी समाज भी अलगाव का शिकार रहता है।

(क) अनुसूचित जाति व जनजाति में जो पिछड़ी उपजातियां हैं, इनके प्रतिनिधित्व का सवाल हल करने के लिए यह जरूरी है कि उनकी सभी जातियों के शैक्षिक व सामाजिक स्थितियों का सर्वेक्षण होता आंकड़ों की समीक्षा की जाती । एकीकृत  जातियों का भी सर्वेक्षण होता और समीक्षा होती। महज उप वर्गीकरण से इनके प्रतिनिधित्व का सवाल हल नहीं हो सकता। बल्कि वर्गीकरण के माध्यम से अत्यंत दलित जातियों के हकों की  नाट एवेलेबुल और नाट फाउंड सुटेबल के द्वारा हकमारी होगी। अभी तक कुछ प्राप्त आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि अनुसूचित जाति और जनजातियों के आरक्षित पद खासकर उच्च श्रेणी के पद रिक्त रह जाते हैं। आज भी उनका कोटा पूरा भरा नहीं है। तब ऐसी स्थिति में भी  इनको वर्गीकृत कर सरकार और सर्वोच्च न्यायालय क्या करना चाहते हैं?  यह तो सीधे तौर पर और हकमारी का रास्ता खोलने जैसा है। यह  फ्लड गेट को खोलने जैसा है। यह तो शत प्रतिशत वैदिक आरक्षण को वापस लाने की कवायद जैसा है।

(ख) इस वर्गीकरण प्रश्न उठता है कि ईडब्ल्यूएस कोटा यानी सुदामा कोटा का सरकार ने और सुप्रीम कोर्ट ने वर्गीकरण क्यों नहीं किया? वहां भी तो जातियां एक दूसरे से ऊंच-नीच हैं और एक दूसरे को अपने से छोटा- बड़ा मानती हैं। सुप्रीम कोर्ट सवर्ण को होमोजिनियस एक वर्ग मानती है और अनुसूचित जाति और जनजाति को नहीं मानकर उसका वर्गीकरण करती है। क्या यह सरकार और न्यायपालिका की कुर्सी पर बैठने वाले वैदिक आरक्षणधारियों की कुत्सित और भेदभाव करने की मानसिकता जैसा नहीं है? क्या यह अनुसूचित जाति और जनजाति के ताकत और उनकी एकता को कमजोर करने, उनका हिस्सा बंदरबांट कर अपने लिए लेने की साजिश करने जैसा नहीं है? क्योंकि अभी भी बिना वर्गीकरण के उच्च पदों की  बहुत सी पदें खाली है। अन्य पदों के विभिन्न कैटेगरी में भी लाखों पद खाली है। सरकार उन खाली पदों को क्यों नहीं भरती है? फिर उन्हें विभाजित करने उनका वर्गीकरण करने का औचित्य क्या है?

(ग) अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण का  यह कार्य सवर्णों द्वारा बंदरबांट के लिए सिर्फ एकतरफ़ा नहीं किया गया बल्कि दलित अधिकारों को छीनने के लिए तीनतरफा प्रहार किया गया है-दलितों का वर्गीकरण करना, उन पर क्रीमी लेयर लगाना और किसी परिवार के केवल एक पीढ़ी को आरक्षण की सुविधा देने का आदेश देना।

(घ) दलितों को जब लाभ लेने और उनके अधिकारों को हड़पने की चाल के विरूद्ध याचिका दी जाती है तब सर्वोच्च न्यायालय उससे आंकड़े, दक्षता और सामाजिक पिछड़ेपन का आंकड़ा मांगता है। उसमें अनावश्यक शर्तों को लगा कर वर्षों स्थगित रखता है। अनिर्णित रखता है और अंततः खारिज कर देता है। लेकिन जब दलितों पर कोई वार करता है तब वही सुप्रीम कोर्ट वार करने वाले का हितरक्षक बन जाता है।

इसलिए जरूरी है कि केंद्र सरकार सभी जातियों की जाति जनगणना कराए। सरकारी नौकरियों, निजी क्षेत्र और अन्य संस्थानों में विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व उसी अनुपात में तय किया जाय।

इस समय देश गहरे आर्थिक-सामाजिक संकट के दौर से गुजर रहा है। आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ रही है। कारपोरेट के मुनाफा के लिए केंद्र सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार व सामाजिक सुरक्षा जैसे मदों पर कटौती जारी रखे हुए है। सर्वोच्च न्यायालय खामोशी से यह सब देख रहा है। सरकार लोगों का ध्यान भटकाने के लिए और उन्हें आपस में लडवाने के लिए प्रतिगामी मुद्दे अपने वकील प्रतिनिधियों के मार्फत सर्वोच्च न्यायालय से आदेश पारित करवा रही है।

सरकार अनुसूचित जाति व जनजाति के समग्र विकास के एससी-एसटी सब प्लान में बजट बढ़ाने और और उनके विकास की कार्य योजना बना कर महादलित पर खर्च कर सकती है। पूर्व की केंद्रीय सरकार ने सफाई कर्मियों और अस्वच्छ पेशों में लगे महादलितों के लिए राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग और उनके लिए अलग से वित्त एवं विकास निगम जैसे प्राधिकार का गठन भी किया गया है। उनका कार्य सराहनीय रहा है। इन कार्यों को और आगे बढ़ाने की बजाय वर्तमान सरकार उसको कमजोर करते हुए सरकार सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से दलितों का वर्गीकरण करते हुए उन्हें लालीपाप थमा दी।  वह उनके विकास  कार्यों को ठप्प करती जा रही है।  बल्कि  कई राज्य सरकारें जैसे राजस्थान मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ की सरकारों ने तो उनके लिए आवंटित राशि को डाइवर्ट कर उसे दूसरे मद में खर्च कर देती है जबकि इनके लिए आवंटित राशि के डाइवर्सन पर रोक लगाई गई है।

(ड) सरकारी सेवाओं में भर्ती सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि योग्य व्यक्ति की अनुपलब्धता (एनएफएस) जैसे उपबंधों (क्लाज) को हटाया जाए और अनुपलब्धता से उपलब्धता तक को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षित पदों को  तब तक रिक्त रखा जाए जबतक उम्मीदवार उपलब्ध न हो जांए। उसके लिए रेमिडियल कोर्स चला कर सीधे मुख्य धारा में समायोजित किया जाय। फाउंड नाट सुटेबल के लिए यह रेमिडियल प्रोग्राम कुछ उच्च शिक्षण संस्थानों में लागू किया गया। जिसकी अवधि एक वर्ष की होती है और इस अवधि में उन्हें पूर्ण छात्रवृत्ति और अन्य सुविधाएं दी जाती है। उसका विस्तार नियुक्ति नियमावली में भी किया जाए।  जब अनुसूचित जाति और जनजाति के पद रिक्त ही रह जाते हैं तब उनके बीच में क्रीमी लेयर की शर्त लगा कर उनकी छंटनी करने की बात ही बेईमानी है। यह दुर्भावनापूर्ण ही कहा जा सकता है।

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(च) दूसरी एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस तरह से सवर्ण फर्जी तरीके से अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रमाण पत्र प्राप्त कर लाभ उठा रहे हैं और शिकायत दर्ज कराने पर पर उल्टे शिकायतकर्ता को ही विभिन्न तरीकों से तंग तबाह किया जाता है।  करीब 25 % आज भी सवर्ण फर्जी जाति प्रमाण पत्र के आधार पर न केवल सरकारी सेवाओं में है बल्कि कुछ तो सर्वोच्च विधायी संस्थानों में भी घुसपैठ किए हैं। वर्गीकरण होने पर सवर्ण महादलित बनकर और भी बेखौफ उनका हिस्सा हड़पने का काम करेंगे।

इस समय देश गहरे आर्थिक-सामाजिक संकट के दौर से गुजर रहा है। आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ रही है। कारपोरेट के मुनाफा के लिए केंद्र सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार व सामाजिक सुरक्षा जैसे मदों पर कटौती जारी रखे हुए है। सर्वोच्च न्यायालय खामोशी से यह सब देख रहा है। सरकार लोगों का ध्यान भटकाने के लिए और उन्हें आपस में लडवाने के लिए प्रतिगामी मुद्दे अपने वकील प्रतिनिधियों के मार्फत सर्वोच्च न्यायालय से आदेश पारित करवा रही है।

लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर बराबर हमले हो रहे हैं। कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ सामाजिक विखंडन में लगा हुआ है और हर तरह के सामाजिक आंदोलन को कमजोर करना चाहता है। सामाजिक न्याय वालों को भी यह समझना होगा और उन्हें खुले या छिपे तौर पर इन ताकतों को सहयोग करना बंद करें। सीढ़ीनुमा (ग्रेडेड असमानता) समाज को कमतर कर स्वतंत्रता, बंधुत्व व समता के मूल्यों पर आधारित समाज बनाने की एकताबद्ध होकर लड़ाई लडे।

एक और बात कि सभी सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों और मंत्रियों के बेटा बेटी को सरकारी स्कूलों में अनिवार्य रूप से शिक्षा देने के कानून की मांग की जानी चाहिए। सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को नहीं भेजने वाले सरकारी सुविधा लेने वाले व्यक्ति को उनके पद से हटाने के साथ अन्य दंड भी दिया जाना चाहिए ताकि शिक्षा का स्तर ऊंचा हो और कोई अपने बच्चे को प्राइवेट स्कूल नहीं भेजे। प्राइवेट स्कूल में लोग  मोटी फी और दान देकर बच्चों को क्यों भेजते हैं? इसलिए न कि सरकारी स्कूलों में बिल्कुल ही पढ़ाई नहीं होती है। वर्तमान सरकार ने निजी क्षेत्र, न्यायपालिका और मीडिया में अनुसूचित जाति व जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की मांग को दबाने के लिए इस तरह का पासा सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से फेंका है। दलितों के समक्ष अपनी एकजुटता बनाए रखने की और न्यायपालिका सहित सभी क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व की मांग पूरी कराने की चुनौती है।

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By Editor


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