Surgical Strike/Irshadul Haque; क्या BJP नीतीश का करियर खत्म करना चाहती है !
Surgical Strike में Irshadul Haque का विश्लेषण पढ़िये.क्या BJP नीतीश का करियर समाप्त कर बिहार की बागदोड़ अपने हाथों में लेना चाहती है और नीतीश के पास क्या विकल्प है?
लोकतांत्रिक राजनीति में गेम कभी खत्म नहीं होता. बस प्लेयर्स बदलते रहते हैं. नीतीश कुमार अपने सियासी गेम के डेढ़ दशक के गोल्डेन एरा की ऊंचाइयों पर हैं. यूं कहें, नीतीश और बिहार पिछले डेढ़ दहाइयों से एक दूसरे के पर्याय बने हुए हैं. यह कहना कि आज नीतीश जो कुछ भी हैं उसमें भारतीय जनता पार्टी का बहुत बड़ा योगदान है, यह बात उतनी ही तथ्यपरक है जितनी यह कहना कि आज बिहार में भाजपा जिस पोजिशन में है उसमें नीतीश का बहुत बड़ा योगदान है.
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क्या Nitish व BJP एक दुसरे से अलग रह पाएंगे ?
अगर नीतीश कुमार (Nitish Kumar) का जदयू और भाजपा एक नहीं हुए होते तो आज बिहार की सियासी तस्वीर वो नहीं होती, जो है. हां, तथ्य यह भी है कि नीतीश के सहारे, हाशिये की पार्टी रही भाजपा एक मजबूत किले के रूप में बिहार में स्थापित हो चुकी है. और अब तो एक सच्चाई यह भी है कि एक दशक बड़े भाई की भूमिका निभा चुके नीतीश एक छोटे भाई की हैसियत में आते जा रहे हैं. लिहाजा भाजपा की तरफ से संजय पासवान जैसे नेताओं को यह कहने का साहस हो चुका है कि नीतीश को अब बिहार की राजनीति छोड़नी पड़ेगी और राज्य का वास्तविक विकास मोदी मॉडल के तहत हो हो पायेगा. 2019 लोकसभा परिणाम के बाद भाजपा के सामने, नीतीश का आत्मबल कमजोर पड़ा है. इसमें दो राय नहीं है.
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Nitish के कारण BJP कैसे पसरती गयी पांव
2009 के लोकसभा चुनाव में कुल 40 में से 20 सीटों पर जदयू का कब्जा था. भाजपा के पाले में 11 सीटें थीं. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद आसमान की बुलंदियों पर खड़ा जदयू, भाजपा से अलग होने के बाद जमीन पर आ गिरा और 2 सीटों पर सिमट गया. लेकिन 2019 में भाजपा के साथ मिल कर बराबर सीटों पर लड़ने के बावजदू जदयू, भाजपा से उन्नीस रहा और उसे 16 जबकि भाजपा को 17 सीटें मिलीं. जदयू भाजपा गठबंधन के दो दशक पुराने गठबंधन में 2019 पहला चुनाव रहा जब जदयू की ताकत, भाजपा से कमजोर हो गयी.
2019 के बाद उत्साह में BJP
भाजपा के इसी उत्साह का नतीजा है कि संजय पासवान जैसे नेता जो कभी नीतीश के सामने सीधा खड़ा होने की हैसियत में नहीं थे, वे अब उन्हें हीं आंखें तरेरते हुए इंडायरेक्ट रूप से कहने लगे हैं कि बिहार की कमान वह छोड़ें.
भाजपा नेताओं की तरफ से ऐसी बोली, भले ही फिलवक्त भाजपा की औपचारिक बोली नहीं है, पर सच का कड़वा पहलू यह है कि भाजपा के आलाकमान कुछ ऐसा ही चाहता है. भाजपा समझती है कि यह सही समय है जब बिहार की बागदोड़ डायरेक्ट उसके हाथ में आ सकती है. यह तभी संभव है जब नीतीश कुमार को, चाहे जैसे भी हो किनारे लगा दिया जाये.
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लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार को किनारे लगा देना भाजपा के लिए इतना आसान है? और यह भी कि क्या नीतीश इतनी आसानी से भाजपा की अधीनता स्वीकार कर लेंगे?
राजनीति को गहराई तक समझने वालों को पता है कि नीतीश कुमार मौजूदा समय के बेहतरीन रणनीतिकारों में से एक हैं. वह वैकल्पिक मार्ग चुनने और उस पर चलने में महारत रखते हैं.
मान लिया जाये कि भाजपा ने किसी तरह, जदयू को मजबूर कर दिया कि वह अलग हो जायें. तो फिर नीतीश के पास क्या विकल्प होगा. 2019 लोकसभा चुनाव परिणाम और
देश की मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य से उत्साहित हो कर यह भी संभव है कि भाजपा अकेले मैदान में कूदने का जोखिम उठा ले. फिर क्या होगा? क्या फिर नीतीश, राजद से हाथ मिला सकेंगे. इस सवाल का जवाब इंडायरेक्ट रूप से राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने दिया था. उनके उस बयान पर गौर करें. तिवारी ने कहा था कि नीतीश में राष्ट्रीय नेतृत्व प्रदान करने की हैसियत है. वह भाजपा को छोड़ें और 2024 के लिए अपोजिशन का नेतृत्व संभालें. तिवारी के इस बयान में एक स्पष्ट चेतावनी भी है. चेतावनी यह कि भाजपा से अलग हो कर नीतीश अगर राजद गठबंधन में आते हैं तो 2020 विधानसभा चुनाव के लिए उन्हें तेजस्वी को बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करना होगा. बदले में 2024 में राजद, कांग्रेस के सहयोग के साथ मोदी के खिलाफ नीतीश का चेहरा पेश करने को तैयार रहेगा.
Nitish के पास कम विकल्प
अगर आने वाले कुछ महीनों तक राजनीति इसी रफ्तार से चलती रही तो इस बार नीतीश के लिए 2020 विधानसभा चुनाव में, 2015 की तरह ज्यादा विकल्प नहीं दिख रहा है. काबिल जिक्र है कि 2015 में राजद के साथ मिल कर सरकार बनाने वाले नीतीश 2017 में भाजपा के पाले में जा कर सरकार बनाने में सफल रहे थे.
नीतीश के बारे में भाजपा की रणनीतियों पर राजद की गहरी नजर है. यही कारण है कि राजद लगातार जदयू और नीतीश पर आक्रामक रहता है. लेकिन इस मामले में नीतीश की खामोशी भाजपा व राजद दोनों के लिए संशय खड़ी करने वाली है. नीतीश का अगला कदम क्या होगा, नीतीश के अलावा कोई और स्पष्ट रूप से अंदाजा नहीं लगा सकता. क्योंकि कई बार नीतीश अप्रत्याशित कदम भी उठा देते हैं. जैसा कि उन्होंने 2014 लोकसभा चुनाव बुरी तरह हारने के बाद उठाया था. तब उन्होंने बिहार की अपनी गद्दी जीतन राम मांझी को सौंप कर सब को हक्का-बक्का कर दिया था.
भले ही नीतीश कुमार की रणनीति अप्रत्याशित हो पर 2020 में उनके पास उतने विकल्प नहीं होंगे जो 2014 और 2015 में थे. इस बार उम्मीद कम है कि नीतीश, भाजपा से अलग हो कर राजद के करीब आते हैं तो राजद उनको मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार स्वीकार कर लेगा. और करीब करीब यही स्थिति भाजपा की भी है. आने वाले छह-आठ महीनों में देश के राजनीतिक और आर्थिक हालात भाजपा के फेवर में नहीं रहे तो नीतीश की किस्मत फिर संवर सकती है. लेकिन अगर भाजपा के फेवर में जनसमर्थन बढ़ता गया तो फिर नीतीश के पास ज्यादा विक्लप नहीं बचेंगे.