Sushil Modi को ठिकाने लगा के सवर्ण लॉबी ने हिसाब चुका लिया?
सुशील मोदी ( Sushil Kumar Modi) के राजनीतिक करियर के उभार का वही काल है जब लालू यादव बिहार के 1990 में मुख्यमंत्री बने. 1990 से अब तक राबड़ी देवी, जीतन राम मांझी और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनते बने. लेकिन इन तीस वर्षों में कुछ नहीं बदला तो वह था, बिहार भाजपा में सुशील मोदी का वर्चस्व. बल्कि यू कहें कि समय का साथ सुशील कुमार मोदी का वर्चस्व 1990 से 2020 तक बना ही नहीं रहा बल्कि बढ़ता ही गया.
लेकिन अचानक 16 नवम्बर 2020 को सुशील मोदी के पर को एक तरह से भाजपा ने कतर दिया. वह अब बिहार के उपमुख्यमंत्री नहीं हैं. उनके बदले में तारकिशोर और रेणु देवी नीतीश कुमार के काबीना में उपमुख्यमंत्री बन चुके हैं. मोदी आउट हो चुके हैं. इस घटना से यकीनन सुशील कुमार मोदी आहत हैं. तभी तो उन्होंने कहा- “भाजपा के कार्यकर्ता का पद उनसे कोई नहीं छीन सकता.”
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1990 में विधानसभा सदस्य चुने जाने के बाद. वह दोबारा 1995 और 2000 में भी पटना सेंट्रल ( अब कुम्हरार) से विधायक बनते रहे. कुछ दिनों के लिए पार्टी ने उन्हें दिल्ली की सियासत में लोकसभा का सदस्य बना कर भेजा भी. पर वह फिर बिहार आ धमके और बिहार भाजपा की सत्ता के केंद्र बन गये.
सुशील मोदी का उदय
1990 के आसपास बिहार में भाजपा के राष्ट्रीय संगठन मंत्री गोविंदा चार्य थे ( Govind Acharya). वह स्वंय पिछड़ा वर्ग से थे. उन्होंने ही सुशील मोदी को प्रोमोट किया. गोविंदा चार्य का तर्क यह था कि लालू प्रसाद के उभार को काउंटर करने के लिए बिहार में पिछड़ी जाति के नेता को आगे करना जरूरी है. उस दौरान बिहार भाजपा पर भूमिहारों का एक तरह से कब्जा था.
भूमिहार नेताओं की ली बलि
सुशील मोदी की राह में सबसे बड़े रोड़े के रूप में सीपी ठाकुर थे. सुशील मोदी ने अपना पहला निशाना सीपी ठाकुर को ही बनाया. उन्हें इतना कमजोर कर दिया कि वह चुनाव में टिकट के लिए भी तरसने लगे. इसी तरह आगे चल कर एक अन्य भूमिहार नेता गिरिराज सिंह को कभी आगे बढ़ने नहीं दिया. 2019 में तो हालत यह हो गयी थी कि गिरिराज सिंह ( Giriraj Singh) नवादा से लोकसभा का टिकट चाहते थे. लेकिन उन्हें मजबूर किया गया और बेगूसराय भेजा गया. बताया जाता है कि इस प्रकरण में सुशील मोदी का हाथ था. तब गिरराज सिंह इतने भाउक हो गये थे कि उन्होंने परोक्ष तौर पर सुशील मोदी और नित्यानंद राय पर आरोप लगाया कि वे उन्हें किनारा करना चाहते हैं. लेकिन आखिरकार गिरिराज सिंह को रो-गा कर भी बेगूसराय से ही चुनाव लड़ना पड़ा.
2005 में जब पहली बार एनडीए की सरकार बनी तो भाजपा खेमे से चंद्र मोहन राय स्वास्थ्य मंत्री बने थे. माना जाता है कि चंद्रमोहन राय ने काफी अच्छा काम किया. इससे उनका कद भी काफी बढ़ता जा रहा था. चंद्र मोहन राय के समर्थकों ने तब आरोप लगाया था कि सुशील कुमार मोदी उनको आगे नहींं बढ़ने देना चाहते थे. 2008 आते आते हुआ भी वही. चंद्र मोहन राय की कैबिनेट से छुट्टी हो गयी. बताया जाता है कि इसमें भी सुशील मोदी का हाथ था.
इससे पहले भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी और बिहार भाजपा के संस्थापक नेताओं में से एक ताराकांत झा को राजनीति के हाशिये पर धकेलने में सुशील मोदी का ही हाथ माना जाता है.
पिछले तीन दशक के बिहार भाजपा के इतिहास को देखें तो सुशील मोदी का किरदार भाजपा के लिए अपरिहार्य सा रहा है. वह 1994 से 2004 तक बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता रहे. 2005 से ले कर 2020 तक ( बीच में कुछ समय के लिए नीतीश कुमार भाजपा से अलग रहे) सुशील मोदी नीतीश कुमार के साथ उपमुख्यमंत्री रहे. लेकिन 16 नवम्बर को जब एनडीए की नयी सरकार बनी तो मोदी से डिप्टी सीएम का पद छीन लिया गया. लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने इसमें सामाजिक समीकरण को बड़ी चतुराई से साधा है. भाजपा कोटे से नये उपमुख्यमंत्री तारकिशोर और रेणु देवी दोनों पिछड़े वर्ग से आते हैं. भाजपा केंद्रीय नेतृत्व को पता है कि सुशील मोदी को रास्ते से हटा कर सीधे सवर्ण के हाथो में भाजपा को सौंपना आत्मघाती हो सकता है. इसलिए उसने सुशील मोदी की जगह पिछड़े नेतृत्व को सामने लाया है.