क्या हैं तीन नये कृषि कानून और क्या होगा किसानों पर प्रभाव

तीन नये कृषि कानूनों का एक विश्लेषण

– जया मेहता

पिछले अनेक वर्षों से भारत में कृषि अर्थव्यवस्था के गहरे संकट में फँसे होने की ख़बरें सुर्ख़ियों का हिस्सा बनती रहीं। यह बहुत दुखद है कि अपनी संकटपूर्ण स्थिति को दुनिया के सामने दर्ज करने के लिए पिछले क़रीब ढाई दशक में पाँच लाख से ज्यादा किसानों को आत्महत्या का रास्ता चुनना पड़ा। लोकतंत्र में चुनाव के वक़्त जब जनता सरकारें बदलती है तो नयी सरकार से वो अपनी हालत में बेहतरी के कदमों की उम्मीद करती है। तमिलनाडु के किसानों ने अपने मरे हुए भाई-बंधु किसानों की अस्थियाँ और नरमुंड लेकर संसद के सामने प्रदर्शन किया था। कर्नाटक के किसानों ने भी अपना विरोध दर्ज किया। महाराष्ट्र के पचास हज़ार किसानों ने नाशिक से मुंबई तक पैदल चलकर अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त किया और फिर सारे देश के क़रीब एक लाख किसानों ने पिछले वर्ष दिल्ली में इकट्ठे होकर सरकार के सामने अपनी  माँगों की गुहार लगाई। इन सारी घटनाओं के जवाब में सरकार ने कोविड काल में किसानों के लिए तीन नये कानून प्रस्तुत किये, जो बात सुधार की करते हैं लेकिन दरअसल इनके ज़रिये सरकार ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफ़े सुधारने और भारत की  खेती को और अधिक संकट में धँसाने का काम किया है। इस लेख में हम इन तीनों नये कृषि कानूनों और उनके प्रभावों को सरल भाषा में समझने की कोशिश करेंगे। 

किसान आंदोलन के शहीदों को दी गई श्रद्धांजलि

जब संसद का मानसून सत्र 14 सितंबर 2020 को शुरू हुआ तब ये तीनों विधेयक राज्यसभा एवं लोकसभा में रखे गए। लोकसभा में यह विधेयक पास हो गए लेकिन 17 सितंबर को शिरोमणि अकाली दल की सांसद और खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इन विधेयकों के विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया। 20 सितंबर को ये विधेयक राज्यसभा में रखे गए जहाँ समूचे विपक्ष ने इन विधेयकों की बारीक पड़ताल के लिए एक समिति बनाने की माँग की। विपक्षी सदस्यों ने यह भी माँग की कि इन विधेयकों को अमान्य करने के उनके प्रस्तावों पर राज्यसभा में मतदान करवाया जाए। राज्यसभा के उपसभापति ने उनकी माँग अस्वीकार कर दी और सदन में घमासान मच गया। सभी नियमों और प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर वैसी ही अफरा-तफरी में इन विधेयकों को आनन-फानन पारित कर दिया। तीसरा कानून, “आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन 1955” 22 सितंबर 2020 को पारित किया और 27 सितंबर को राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद ये तीनों विधेयक कानून बन गए।


पारित कृषि अधिनियम

1. आवश्यक वस्तु (संशोधनअधिनियम, 2020

आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में भारत में लागू किया गया था। तब इस नियम को लागू करने का उद्देश्य उपभोक्ताओं को आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता उचित दाम पर सुनिश्चित करवाना था। अतः इस कानून के अनुसार आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन, मूल्य और वितरण सरकार के नियंत्रण में था जिससे उपभोक्ताओं को बेईमान व्यापारियों से बचाया जा सके। आवश्यक वस्तुओं की सूची में खाद्य पदार्थ, उर्वरक, औषधियाँ, पेट्रोलियम, जूट आदि शामिल थे।

23 सितम्बर 2020 को पारित अधिनियम में संशोधन के बाद बने इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया गया है। इस प्रकार, इन वस्तुओं पर जमाखोरी एवं कालाबाज़ारी को सीमित करने और इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने जैसे प्रतिबंध हटा दिए गए हैं। अब इन वस्तुओं के व्यापार के लिए लाइसेंस लेना ज़रूरी नहीं होगा। हालाँकि इस अधिनियम में प्रावधान है कि युद्ध, अकाल या असाधारण मूल्य वृद्धि जैसी आकस्मिक स्थितियों में प्रतिबंधों को फिर से लागू किया जा सकता है लेकिन जिस समय इस प्रतिबंध को हटाया गया है, क्या यह आपातकालीन समय नहीं है? 

इस संशोधन को उचित ठहराते हुए सरकार तर्क देती है कि किसान अपनी कृषि उपज को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बेचकर बेहतर दाम प्राप्त कर सकेंगे। इससे किसानों को व्यापार एवं सौदेबाजी के लिए बड़ा बाज़ार मुहैया होगा और उनकी व्यापारिक शक्ति बढ़ेगी। इसी प्रकार खाद्य पदार्थों के भंडारण की मात्रा पर प्रतिबंध हटा देने से भंडारण क्षेत्र (वेयर हाऊसिंग) की क्षमता बढ़ाई जा सकती है और इसमें निजी निवेशकों को भी आमंत्रित किया जा सकेगा।


देश में किसान परिवारों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत को देखते हुए ऐसे किसान गिने-चुने ही हैं जो अपना कृषि उत्पाद मुनाफ़े की तलाश में दूर-दराज के इलाकों तक भेज पाते हों या जिनके पास इतने बड़े गोदाम हों जहाँ वो अपनी फसल का लम्बे समय तक भंडारण कर सकें। ज़ाहिर है इस संशोधन वाले कानून से केवल बड़े व्यापारियों और कंपनियों को ही फ़ायदा होगा। जो खाद्य पदार्थों के बाज़ारों में गहराई तक पैठ रखते हैं और ये अपने मुनाफ़े के लिए खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और परिवहन करके संसाधनविहीन बहुत सारे ग़रीब किसानों का नुकसान ही करेंगे।
 
2. कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020


1970 के दशक में, राज्य सरकारों ने किसानों के शोषण को रोकने और उनकी उपज का उचित मूल्य सुनिश्चित करने के लिए ‘कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम’ (एपीएमसी एक्ट) लागू किया था। इस अधिनियम के तहत यह तय किया गया गया था कि किसानों की उपज अनिवार्य रूप से केवल सरकारी मंडियों के परिसर में खुली नीलामी के माध्यम से ही बेची जाएगी। मंडी कमेटी ख़रीददारों, कमीशन एजेंटों और निजी व्यापारियों को लाइसेंस प्रदान कर व्यापार को नियंत्रित करती है। मंडी परिसर में कृषि उत्पादों के व्यापार की सुविधा प्रदान की जाती है; जैसे उपज की ग्रेडिंग, मापतौल और नीलामी बोली इत्यादि। सरकारी मंडियों या लाइसेंसधारी निजी मंडियों में होने वाले लेन-देन पर मंडी कमेटी टेक्स लगाती है। भारतीय खाद्य निगम (फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया – एफसीआई) द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कृषि उपज की ख़रीददारी सरकारी मंडियों के परिसर में ही होती है।


कृषि उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020 के अनुसार कृषि व्यापार की यह अनिवार्यता कि मंडी परिसर में ही उपज बेचना ज़रूरी है, ख़त्म कर दी गई। नए कानून के मुताबिक किसान राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों के बाहर अपनी कृषि उपज बेच सकता है। यह कानून कृषि उपज की ख़रीद-बिक्री के लिए नए व्यापार क्षेत्रों की बात करता है जैसे किसान का खेत, फैक्ट्री का परिसर, वेयर हॉउस का अहाता इत्यादि इन व्यापार क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म की भी बात की जा रही है। इससे किसानों को यह सुविधा मिलेगी कि वे कृषि उपज को स्थानीय बाज़ार के अलावा राज्य के अंदर और बाहर दूसरे बाज़ारों में भी बेच सकते हैं। इसके अलावा, इन नये व्यापार क्षेत्रों में लेन-देन पर राज्य अधिकारी किसी भी तरह का टेक्स नहीं लगा पाएँगे। यह कानून सरकारी मंडियों को बंद नहीं करता बल्कि उनके एकाधिकार को समाप्त करता है, सरकार का दावा है कि इससे कृषि उपज का व्यापार बढ़ेगा।

इस नियम का विरोध इसलिए भी किया जाना ज़रूरी है क्योंकि यह कानून संविधान में निहित राज्य सरकारों के अधिकार की अवमानना करता है। सत्तर के दशक में कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) को राज्य सरकार की विधानसभाओं ने बनाया था और अब इस नये कानून से कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) निरस्त हो गए हैं और केंद्र सरकार ने इन्हें निरस्त करते समय राज्य सरकारों से बात करना भी ज़रूरी नहीं समझा। केंद्र सरकार राज्य सरकारों से सलाह लिए बिना उन्हें कैसे ख़त्म कर सकती है? सन 2003 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी तो यह निर्णय लिया गया था कि निजी कंपनियों को मंडी परिसर के बाहर कृषि उपज ख़रीदने की अनुमति दी जानी चाहिए। लेकिन इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, केंद्र सरकार ने केवल एक मॉडल अधिनियम तैयार किया और उसके मुताबिक राज्य सरकारों को मंडी अधिनियम में संशोधन करने की सलाह दी। इसके विपरीत मोदी सरकार की एनडीए गवर्मेंट ने हर क्षेत्र में, हर मामले में संवैधानिक उल्लंघन करने का रिकॉर्ड बनाया है।

राज्य सरकारों के अधिकारों के हनन से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि किसान ख़ुद इस कानून को किसान विरोधी और कॉरर्पोरेट समर्थक मानते हैं। वे जानते और मानते हैं कि इन सुधारों से उन्हें अपनी उपज के लिए उच्च मूल्य प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलेगा। इसके बजाय इन सुधारों से कॉरपोरेट्स को कृषि उपज की सीधी ख़रीद की सुविधा होगी, जिस पर किसी हद तक कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) होने की वजह से राज्य सरकार का कुछ तो नियंत्रण था। कॉरपोरेट घरानों और बड़े व्यापारियों को ख़रीद-फ़रोख़्त की खुली छूट मिल जाने से वे उन जगहों से ही किसानों की उपज ख़रीदेंगे जहाँ लेन-देन के लिए कोई शुल्क या टैक्स नहीं लिया जाएगा। शुरुआत में कंपनियों द्वारा किसानों को लुभाने के लिए कुछ आकर्षक मूल्य के प्रस्ताव दिए जाएँगे लेकिन बाद में फसल के दामों पर पूरा नियंत्रण कंपनियों और व्यापारियों का हो जाएगा।


हालाँकि मोदी सरकार बार-बार आश्वासन दे रही है कि एफसीआई द्वारा कृषि उपज की खरीद जारी रहेगी और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा। किसानों को इस आश्वासन पर जरा भी भरोसा नहीं है। इस सरकार का रिकॉर्ड है कि पहले भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बारे में कई वादे किए गए थे जिन्हें कभी पूरा नहीं किया गया। सन 2014 के अपने चुनावी घोषणापत्र में, भारतीय जनता पार्टी ने वादा किया था कि वह स्वामिनाथन आयोग की रिपोर्ट में दिए गए सुझावों को लागू करेगी।

लेकिन जब चुनाव जीत लिया और सरकार बन गई, तब 2015 में मोदी सरकार ने सर्वोच्च अदालत में एक हलफ़नामा दायर किया। इस हलफ़नामे में सरकार द्वारा कहा गया कि किसानों को आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिया ही नहीं जा सकता क्योंकि इससे पूरे बाज़ार में विकृति आ जाएगी। इसके बाद कृषि मंत्री ने कहा कि उन्होंने आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने के लिए कभी कोई वादा किया ही नहीं था।

3. कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर करार (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 2020

इस अधिनियम का उद्देश्य अनुबंध या ठेका खेती के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संस्थागत ढाँचा तैयार करना है। ठेका या अनुबंध खेती में वास्तविक उत्पादन होने से पहले किसान और ख़रीददार के बीच उपज की गुणवत्ता, उत्पादन की मात्रा एवं मूल्य के सम्बंध में अनुबंध किया जाता है। बाद में यदि किसान और ख़रीददार के बीच में कोई विवाद हो तो इस कानून में विवाद सुलझाने के प्रावधान शामिल हैं। इन प्रावधानों के अनुसार सबसे पहले तो एक समाधान बोर्ड बनाया जाए जो विवाद सुलझाने का पहला प्रयास हो। यदि समाधान बोर्ड विवाद न सुलझा सके तो आगे इस विवाद को सबडिविज़नल मजिस्ट्रेट और अंत में अपील के लिए कलेक्टर के सामने ले जाया जा सकता है लेकिन विवाद को लेकर अदालत में जाने का प्रावधान नहीं है। अधिनियम विवाद सुलझाने की बात तो करता है लेकिन इसमें ख़रीद के अनुबंधित मूल्य किस आधार पर तय होंगे इसका कोई संकेत नहीं है। एक बड़ी कम्पनी तरह-तरह के दबाव बनाकर छोटे किसान से कम से कम मूल्य पर अनुबंध कर सकती है, और चूँकि कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य को आधार नहीं बनाते हुए आस-पास की सरकारी या निजी मंडियों के समतुल्य मूल्य देने की बात की है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल हो। कानून की भाषा की पेचीदगियों से किसान को गफ़लत में डालकर कंपनियाँ अपने मुनाफ़े को सुनिश्चित करने वाला मूल्य अनुबंध में शामिल करवाएँगी। 


हाल में गुजरात में पेप्सिको कम्पनी ने कुछ ऐसे आलू उत्पादक किसानों से मुआवजे की माँग की जिन्होंने पेप्सिको के साथ खेती का कोई अनुबंध नहीं किया था। पेप्सिको का इन किसानों पर यह आरोप था कि बिना अनुबंध किए यह किसान आलू की वही किस्म उगा रहे थे जो पेप्सिको कम्पनी अनुबंध करके किसानों से उगवाती है और जिससे ले’ज़ ब्रांड के चिप्स बनते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि किसी ख़ास उत्पाद के लिए अगर कंपनियाँ किसानों के साथ ठेका खेती का अनुबंध करती हैं तो वे उस फसल के बीज पर भी अपना कॉपीराइट का अधिकार जताती हैं जो बीज उन्होंने किसान को दिया होता है। यानि जो किसान कंपनियों के साथ खेती का अनुबंध नहीं करेंगे वे कम्पनी के बीज की किस्म को उगा भी नहीं सकेंगे।

इससे भी ज़्यादा अहम बात यह है कि भारत की खेती के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश और निर्यात बाज़ारों पर अधिक निर्भरता देश की खेती में फसलों के चयन को बदल देगी। इससे हमारी खेती की पूरी व्यवस्था को बुरी तरह क्षति पहुँचेगी। जिस तरह ग़ुलामी के दौर में हमारे किसान अपनी ज़मीन पर वह फसल उगाने के लिए स्वतंत्र नहीं थे जो वे उगाना चाहते थे या जो उनकी ज़रूरत थी, बल्कि उन्हें अंग्रेजों के डर से वह उगाना होता था जिसमें अंग्रेजों को

फ़ायदा था और जो अंग्रेजों की ज़रूरत थी। सन 1917 में चम्पारण में गाँधीजी ने अंग्रेजों द्वारा करवाई जा रही नील की जबरिया खेती के ख़िलाफ़ अपना पहला सत्याग्रह किया था। तब में और अब में फ़र्क इतना ही है कि अब यही काम डंडे, बूटों और हंटर के बजाये ऊँची कीमत के लालच और मुनाफ़े की राजनीति के द्वारा किया जा रहा है और हमारे किसान फिर से अपनी ज़रूरत की फसल चुनने के अधिकार से वंचित किए जा रहे हैं।

साम्राज्यवादी देशों का कृषि व्यापार में यह रवैया अनेक दशकों से रहा है। उष्णकटिबंधीय देशों यानि गर्म जलवायु वाले देशों में विभिन्न प्रकार के फलों, सब्ज़ियों, फूलों, मसालों और ऐसे अनेक कृषि उत्पादों की खेती की जा सकती है जो यूरोप और अमेरिका के ठंडी और मध्यम या समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों में नहीं उगाये जा सकते हैं। साम्राज्यवादी व्यवस्था यह चाहती है कि उष्णकटिबंधीय देश अपनी खेती में उन कृषि उत्पादों की पैदावार करें जिनकी ज़रूरत विदेशों में है और इसके बदले में वे विकसित देशों में भारी मात्रा में उत्पादित होने वाले खाद्यान्न का आयात कर लें। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और आयात-निर्यात बाज़ार किसानों को खाद्यान्न उत्पादन को छोड़ देने और अपनी खेती को विकसित देशों के मुताबिक ढालने के लिए बहुत से लुभावने और आकर्षक प्रस्ताव दे सकते हैं। अफ्रीका में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साम्राज्यवादी देशों ने ऐसा ही किया है और वहाँ की बड़ी आबादी की खाद्य सुरक्षा गंभीर खतरे में पड़ गई है। मौजूदा बदलावों को देखते हुए लगता है कि भारत भी अफ्रीका के रास्ते पर ही आगे बढ़ेगा और ऐसा करने में कंपनियों को भारतीय राज्य का सक्रिय समर्थन हासिल है।
 
उम्मीद जगाते संघर्ष

यह कानून उन बड़े बदलावों का एक हिस्सा हैं जो भारत की अर्थव्यवस्था को साम्राज्यवादी देशों की ग़ुलाम अर्थव्यवस्था बनाने के लिए किये जा रहे हैं। हम नवउदारवाद के दौर में अपनी ही चुनी गई सरकारों द्वारा अपने ही देश के सार्वजानिक उद्यमों को निजी हाथों में औने-पौने दामों पर निजी कंपनियों को बेचा जाता देख रहे हैं। हाल ही में अनेक नए श्रम कानूनों को चार कोड के भीतर समेटकर उन्हें इस तरह बदल दिया गया है कि मालिकों को मज़दूरों और कर्मचारियों के शोषण की और ज़्यादा कानूनी आज़ादी हासिल हो जाये। यह तीन कृषि कानून भी उन व्यापक बदलावों का ही एक हिस्सा हैं जहाँ जनता द्वारा चुनी गई सरकार देशी-विदेशी महाकाय कंपनियों के मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए अपने मज़दूरों और किसानों की मेहनत को, उनकी आजीविका को और उनके जीवन को गिरवी रख रही है। किसानों का पिछले कई दिनों से दिल्ली घेराव का आंदोलन इन नीतियों के प्रतिरोध की एक पुरज़ोर कोशिश है और आने वाले वक़्त में प्रतिरोध की ऐसी बहुत सी ज़ोरदार कोशिशें उभरेंगी और शोषितों के अलग-अलग तबकों का सामूहिक प्रतिरोध एक दिन शोषण की व्यवस्था को ख़त्म कर एक नयी व्यवस्था कायम करेगा।


——————————————

डॉक्टर जया मेहता वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं। वे जोशी अधिकारी इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीजदिल्ली एवं संदर्भ केंद्रइंदौर से संबद्ध हैं।

[email protected]

By Editor


Notice: ob_end_flush(): Failed to send buffer of zlib output compression (0) in /home/naukarshahi/public_html/wp-includes/functions.php on line 5427