बेगूसराय में लोकतंत्र को व्यक्तितंत्र बनाने के मीडियाई तमाशे का क्यो होगा अंजाम?
लोकसभा चुनाव के दौरान बेगूसराय में कन्हैया को सामने रख कर जो मीडियाई तमाश हुआ वैसा तमाशा दिल्ली बलात्कारकांड व अन्ना आंदोलन में हुआ.इससे क्या सबक मिलता है.
बेगूसराय में लोकतंत्र को व्यक्तितंत्र में बदलने का ऐसा मीडियाई तमाशा कभी-कभी होता है.ऐसा ही तमाशा मीडिया ने दिल्ली बलात्कार कांड में पेश किया था.ऐसा ही तमाशा अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में में मीडिया ने रचा था.
अब यही मीडियाई तमाशा हम बेगूसराय में देख रहे हैं. मंडराते हुए गिद्धों की तरह देश-दुनिया का मीडिया बेगूसराय उतर आया था. उसे बस एक तमाशा दिखाना था-कन्हैया.
अन्ना आंदोलन याद है?
जिस तरह दिल्ली बलात्कार मामले में पूरे देशा का मीडिया ‘राष्ट्र धर्म’ निभा रहा था और पूरे देश के चिकने-चमचमाते चेहरे वाले/वालियां दिल्ली बलात्कार के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूक रहे थे. और जिस तरह अन्ना आंदोलन में अलादीनों का हुजूम भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए जादुई चिराग लिए घूम रहे थे, बस वही सूरत ए हाल पिछले दो पखवारे से बेगूसराय में बना दी गयी थी. जैसे कन्हैया के जीतते ही साम्प्रदायिकता के नाग का मुंह कुचल जायेगा. जैसे एक नाजीवादी तानाशाह सत्ता से बेदखल कर दिया जायेगा. ठीक वैसे ही जैसे अन्ना आंदोलन के मीडियायी तमाशे के बाद देश से भ्रष्टाचार का अंत हो जाने का बीड़ा मीडिया ने उठा रखा था.
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जिस तरह दिल्ली बलात्कारकांड के खिलाफ मीडियायी कवरेज के बाद बेटी-बहनों की आबरू महफूज हो जाने के सपने हम पालने लगे थे. ठीक वैसे ही देश के मीडिया ने कन्हैया को उम्मीदों के अक्स के रूप में परोसा. दर असल मीडिया खबरों के कारोबारी के रूप में ऐसे पात्र गढ़ता है. और जब लोग उस पात्र के पीछे दीवाने बन जाते हैं तो उसकी खबरें पाठकों व दर्शकों को आकर्षित करने लगती हैं.
कन्हैया के इर्द-गिर्द पागलपन
एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द खबरों के लिए पागलपन के शिकार मीडिया घरानों को बिहार में बेटियों के संस्थानिक बलात्कार की हृदयविदारक घटना पागल क्यों नहीं बना सकी. हाल ही में सामने आये सृजन जैसे घोटाले मीडिया के लिए लगातार परोसी जाने वाली खबरें क्यों नहीं बन सकीं. और जमीन से जुड़ कर दशकों तक काम करने वाले सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं की कहानियां क्यों मीडिया में जगह नहीं बना पातीं.
मीडियाई तमाशा
इस तरह का उदाहर आरा लोकसभा क्षेत्र में अभी देखने को मिला. दो दशक से भी ज्यादा समय तक गरीबों के हक के लिए संघर्ष करने वाले आरा के माले प्रत्याशी राजू यादव को कोई जानता है? जमीनी स्तर पर वंचितों के हक की लड़ाई को अपनी लड़ाई बनाने वाले राजू पर कितने मीडिया की नजर है. ऐसे एक नहीं दर्जनों उदाहरण हैं.
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भले ही मीडिया के व्यापक कवरेज ने कन्हैया को महत्पूर्ण बना डाला है. कन्हैया के प्रचार अभियान को शबाना आजमी, जावेद अख्तर, प्रकाश राज सरीखे दर्जनों सेलेब्रिटी पहुंच कर मीडिया कवरेज में और तड़क-भड़क डाल गये. पर क्या मीडिया ने जिन कन्हैया को गढ़ा, अगर कन्हैया जीत गये तो क्या वे ऐसी सशक्त आवाज बन जायेंगे जिनकी चीख से सारी समस्यायें समाप्त हो जायेंगी?
क्या कन्हैया हार गये तो देश में दलितों, पिछड़ों शोषितों अल्पसंख्यकों के सर पर पहाड़ टूट पड़ेगा?
मीडिया ने अब कन्हैया को खुद कन्हैया के लिए चुनौती बना डाला है. कन्हैया की जीत होगी या हार यह तो 23 मई को पता चलेगा लेकिन इतना तो तय है कि मीडिया द्वारा दी गयी चमक के बूते समस्याओं का समाधान नहीं होता.