तेजस्वी ने क्यों रखा गठबंधन से कन्हैया को बाहर? इर्शादुल हक का विश्लेषण

तेजस्वी ने क्यों रखा गठबंधन से कन्हैया को बाहर? इर्शादुल हक का विश्लेषण

 

Irshadul Haque, Editor Naukarshahi.com

सेक्युलर और समाजवादी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के मन में एक सवाल लगतार गर्दिश कर रहा है. सवाल है कि साम्प्रदायिकता और सामनंतवाद के खिलाफ युद्धरत तेजस्वी और कन्हैया कुमार के बीच चुनावी समझौता क्यों नहीं हुआ? महागठंधन ने सीपीआई को अपने अलायंस में जगह क्यों नहीं दी?  जबकि वही राजद दिपांकर भट्टाचार्य की सीपीआई एमएल को अपने कोटे की एक सीट कुर्बान करने को राजी है तो फिर कन्हैया की पार्टी सीपीआई से उन्हें क्यों गुरेज है?

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   आमजन का यह तर्क है कि तेजस्वी और कन्हैया दोनों नयी पीढ़ी के ऐसे नेता हैं जो सामंतवाद व साम्प्रदायिकता के खिलाफ बेबाकी से युद्ध लड़ने वाले प्रतिनिधि चेहरे बन चुके हैं. लिहाजा उन्हें यह लड़ाई मिल कर लड़नी चाहिए थी. हम यहां इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं.

चंद्रशेखर आजाद रावण बनाम मायावती

इन सवालों पर चर्चा करने से पहले हम उत्तर प्रदेश और गुजरात की कुछ मिसालें लेते हैं. पिछले कुछ सालों में साम्प्रदायिकता, सामंतवाद और दलित उत्पीड़न के खिलाफ जंग का बिगुल बजा है. और यह संयोग नहीं कि इस युद्ध में कई नये चेहरे इमर्ज किये. गुजरात में जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल तो उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीड़न के खिलाफ चंद्रशेखर आजाद  रावण. जिग्णेश और हार्दिक पटेल ने अपनी राह वहां पर मौजूद भाजपा विरोधी सशक्त आवाज यानी कांग्रेस में शामिल हो गये. लिहाजा उनके लिए खुदके दम पर आगे बढ़ने की चुनौतियां लगभग खत्म हो गयीं.

 

लेकिन उत्तर प्रदेश में चंद्र शेखर रावण ने भीम आर्मी बना कर अपनी पहचान को स्वतंत्र रखा. बिहार में कन्हैया को उनकी पार्टी सीपीआई के मृतप्राय शरीर में प्राणवायु भरने की जिम्मेदारी सौंप दी. इसलिए इन दोनों नेताओं को एक समान चुनौतियों से जूझना ही था. चंद्रशेखर को मायावती भाव नहीं देतीं. उधर बिहार में तेजस्वी ने कन्हैया को कोई भाव नहीं दिया.

 

आखिर ऐसा क्यों? आइए इस पर कुछ विमर्श करते हैं.

 

राजनीति में किसी भी संगठन के लिए मुख्य तौर पर दो चुनौतियां होती हैं. एक बाहरी और दूसरी आंतरिक. बाहरी चुनौतियां तो घोषित रहती हैं. जैसे राजद जिस पृष्ठभूमिक की राजनीति करता है उसमें भाजपा की साम्प्रदायिकता और सामंतवादी विचारधारा के खिलाफ उसकी लड़ाई है. भाजपा, राजद के लिए राजनीतिक चुनौती है. तो दूसरी तरफ भाजपा का विरोध ही राजद को राजनीतिक रूप से ऊर्जावान करता है. जहां तक आंतरिक चुनौतियों की बात है तो ये चुनौतियां समान विचारों वाले दलों या नेताओं के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा के रूप में होती है.  इस दृष्टिकोण से देखें तो तो तेजस्वी और कन्हैया की आपसी प्रतिस्पर्धा दो नेताओं और दलों के बीच आंतरिक प्रतिस्पर्धा का उदाहरण है.

 

तेजस्वी और कन्हैया की प्रतिस्पर्धा

सतही तौर पर यह बिल्कुल दुरुस्त है कि कन्हैया और तेजस्वी दोनों के लिए भाजपा समान रूप से राजनीतिक विरोधी ( दुश्मन) है. लेकिन यहां दुश्मन का दुश्मन, दोस्त के बरअक्स समान विचारधारा पर आपसी प्रतिस्पर्धा के खतरे भी हैं. यहां याद रखने की बात है कि सीपीआई माले, राजद या तेजस्वी के लिए प्रतिस्पर्धी नहीं है. बावजूद इसके कि माले सांगठनिक और राजनीतिक तौर पर सीबीआई से कई गुणा ज्यादा ताकतवर है. ऐसा इसलिए कि माले का कोई भी नेता कन्हैया जैसा  राष्ट्रव्यापी प्रभाव डालने में सक्षम नहीं है. लेकिन कन्हैया अपनी बौद्धिक और वैचारिक क्षमता सिद्ध कर चुके हैं.

[box type=”shadow” ]राजनीति में विरोधियों को चित करना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी समान विचारों के दलों और नेताओं से संभावित प्रितस्पर्धा और चुनौतियों को सूझ-बूझ से पार करना होता है. तेजस्वी ने वही किया है.[/box]

वह क्राउड पुलर बनते जा रहे हैं. अगर उन्हें सांसद बनने का मौका मिला तो उनका रुपांतरण छात्र नेता से राजनेता के रूप में होता चला जायेगा. और जाहिर है सीपीआई चाहती भी यही है. स्वाभाविक तौर पर कन्हैया का यह रुपांतरण समान विचारों वाली पार्टियों के लिए चुनौतीपूर्ण होगा.

 

कुछ उदाहरण

 

तेजस्वी और कन्हैया के राजनीतिक उभार का कालक्रम कमोबेश एक ही है. तेजस्वी एक मजबूत संगठन की बागदोड़ संभालने के साथ विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता बन चुके हैं जो मोदीनुमा राजनीति के विरोध का धारदार चेहरा बन चुके हैं. इस दौरान कन्हैया भी छात्र राजनीति से अगे बढ़ते हुए मोदीनुमा राजनीतिक के विरोध के प्रतीक बन चुके हैं. ऐसे में कई अवसर आये जब दोनों ने मोदीनुमा राजनीति का विरोध एक मंच से और एक साथ किया. लेकिन इन दोनों नेताओं को करीब से जानने वालों को पता है कि दोनों के बीच संवाद काफी सीमित या यूं कहें कि नहीं के बराबार होता है. पिछले दिनों जब तेजस्वी ने मुजफ्फरपुर शेल्टर होम बलात्कार के खिलाफ दिल्ली में धरना आयोजित किया था तो उस मंच पर कन्हैया भी मौजूद तो थे लेकिन दोनों के बीच अघोषित दूरी बनी रही. कन्हैया ने इस बात को बखूबी महसूस भी किया. उन्होंने इस बात का उल्लेख अपने कुछ करीबी लोगों से किया भी था. लिहाजा कन्हैया राजद द्वारा सीपीआई को अलायंस पार्टनर नहीं बनाने से भले आहत हुए हों पर अगर इस पर उन्हें आशचर्य होता है तो माना जायेगा कि अभी उन्हें राजनीति की कई चालें समझने की जरूरत है.

 

अब रही तेजस्वी की बात तो यहां यह याद रखना होगा कि उन्हें कन्हैया को गठबंधन से अलग रख कर वही किया है जो एक सधा हुआ लीडर करता है.

 

राजनीति में विरोधियों को चित करना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी समान विचारों के दलों और नेताओं से संभावित प्रितस्पर्धा और चुनौतियों को सूझ-बूझ से पार करना होता है. तेजस्वी ने वही किया है.

By Editor


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