मर्दों की यह बायस्ड सोच भले ही काफी हद तूटी है कि महिलायें, पुरुषों के मुकाबले कमतर होती है. पर अब भी ऐसी सोच समाज में बनी हुई है. और अगर बात मुस्लिम महिलाओं की हो, तो समाज का एक बड़ा वर्ग अब भी कुछ ज्यादा ही बायस्ड है. पर इस अवधारणा को ध्वस्त होता देखना हो तो आपको पटना में चल रहे तीन दिवसीय उर्दू मिहला साहित्य महोत्सव में जाना चाहिए.
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
इस महोत्सव का आयोजन बिहार उर्दू अकादमी ने शनिवार को शुरू किया, जो सोमवार तक जारी रहेगी.
देश में अपनी तरह का यह दूसरा आयोजन है जिसे बिहार उर्दू अकादमी ने आयोजित किया है. पते की बात यह है कि पहला आयोजन भी बिहार उर्दू अकादमी ने ही 2016 में किया था.
उर्दू की निसाई( महिला) अदब पर परिचर्चा के लिए कश्मीर से कर्नाटक तक की 43 उर्दू अदीबाओं( महिला साहित्यकारो) का एक प्लेटफार्म पर जमा कर देना जितना महत्वपूर्ण था उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण, यह जान कर चकित हो जाना था, कि उर्दू साहित्य में ख्वातीन की कितनी मजबूत दस्तक है. साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित बानो सरताज, जब उर्दू अदब में दर्जनों महिला साहित्यकारों की मजबूत दबिश की चर्चा करती हैं तो न सिर्फ उर्दू साहित्य के रौशन भविष्य का पता चलता है बल्कि यह भी पता चलता है कि महिलाओं ने किस तरह से पुरुषवादी मानसिकता के वर्चस्व को धरासाई कर दिया है, और अब भी करने में जुटी हैं.
प्रोफेसर सरवत खान जब माइक थामती हैं तो पहले ब जाहिर वह कोई खास असर नहीं छोड़तीं, लेकिन जब वह अपना पेपर पढ़ते हुए उर्दू साहित्य के पास्ट और प्रजेंट की ख्वातीन साहित्यकारों के योगदान को रेखांकित करती हुई आगे बढ़ती हैं, तो इससे उनकी न सिर्फ अदबी गहराई का पता चल जाता है बल्कि उनकी सोच की बुलंदी भी सामने आ जाती है.
सरवत परवीन शाकिर से ले कर इस्मत चुग्ताई के योगदान को आगे बढ़ाने वाली परम्परा की मौजूदा अदीबाओं की लम्बी फिहरिस्त पेश करते हुए यह साबित कर देने की कामयाब कोशिश करती हैं कि उर्दू अदब ना सिर्फ मजबूती से फल-फूल रहा है बल्कि अदब के हर शोबे में महिला साहित्यकारों ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है.
इस आयोजन में निसाई साहित्य की चर्चा सोमवार तक चलती रहेगी. लेकिन इस आयोजन के पहले ही दिन जिस तरह से लोगों में उत्साह दिखा, वह साबित करता है कि अदब के प्रति आम लोगों में मौजूद आकर्षण को डिजिटल मीडिया के इस दौर ने कमजोर नहीं, बल्कि काफी मजबूत ही किया है.
हां साहित्य के पढ़ने की आदत के बारे में जो आम शिकायतें हैं, वह तो हर साहित्य में एक जैसा है.
निसाई अदब पर अलग बहस क्यों ?
इस आयोजन की शुरुआत के पहले अकादमी के सचिव मुश्ताक अहमद नूरी ने, महिला उर्दू अदब पर अलग से चर्चा की जरूरत पर रौशनी डाली. अदब के इस महत्व को उन्होंने सियासत के उमदा मिशाल से समझाने की कोशिश की. कहा, कि बिहार के वजीर ए आला नीतीश कुमार, अकादमी के चेयरमैन हैं. इसलिए महिलाओं के प्रति उनकी संवेदनशील सोच और उनके प्रति उनके योगदान ने ही इस आयोजन को करने के लिए प्रेररणा दी.
नूरी ने कहा कि वजीर ए आला के महिलाओं के विकास पर खास तवज्जो से ही आज बिहार में स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए पचास प्रतिश आरक्षण और नौकरियों में 35 प्रतिशत आरक्षण मिल सका है. ऐसे में बिहार उर्दू अकादमी की यह कोशिश है कि महिला साहित्यकारों को पूरा मंच ही दिया जाये, जहां वह खुद अपनी हैसियत और अपनी भूमिका को रेखांकित कर सकें.
इस अवसर पर बिहार उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष और मौलाना मजहरुल हक युनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांस्लर एजाज अली अरशद वहां लगातार मौजूद तो रहे ही, साथ ही उन्होंने अपनी तकरीर में उर्दू साहित्य के शानदार भविष्य के प्रति महिलाओं की भूमिका की जम कर सराहना की.
पहले दिन के विभिन्न सत्रों का संचाल वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार तसनीम कौसर ने किया. बिहार में टेलिविजन पर उर्दू खबरों की पेशकश को विख्यात बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली तसनीम कौसर ने इस बात को रखांकित किया कि बिहार उर्दू अकादमी और मुश्ताक अहमद नूरी जैसे लोग ही ऐसे आयोजन को संभव बना सकते हैं.