अमिताभ कृष्णदेव

‘गुरु’ का शाब्दिक अर्थ है ‘अंधकार नष्ट करने वाला’  अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले को गुरु कहते हैं। आदि शंकराचार्य ने गुरु की व्याख्या इस प्रकार की है : “तीनों लोकों में गुरु का कोई समतुल्य नहीं है। यदि पारसमणी की तुलना भी गुरु से की जाए तो पारसमणी केवल लोहे को सुवर्ण रूपांतरित कर सकता है, दूसरे पारसमणी में रूपांतरित नहीं कर सकता, लेकिन सद्गुरु अपने शिष्य को अपने सामान बना लेते हैं”।

गुरु क्यों जरूरी :

गुरु भक्त एवं ईश्वर की बीच की कड़ी है। ईश्वर प्राप्त सद्गुरु श्री श्री परमहंस योगानंद जी ने कहा कि गुरु एक जागृत ईश्वर है जो भक्त के अंदर सुप्त ईश्वर को जगाता है। आज जो अपना है, कल पराया हो जाता है, आज जिनसे प्रेम है कल उनसे दूरी बन जाती है। रिश्ते दर्पण की तरह हैं, हल्की चोट से भी टूट जाते हैं। ईश्वर और केवल ईश्वर ही सत्य है, शेष सब कुछ मिथ्या है।

सच्चा गुरु कैसे प्राप्त करें- परमपिता से प्रार्थना करें, जब भक्त को सत्य जानने लालसा तेज हो जाती है,  तृष्णा तीव्र हो जाती है तब ईश्वर भक्त के जीवन में गुरु को भेजते हैं। गुरु ढूंढने में चमत्कारों पर न जाएं,  अपने हृदय की आवाज ईश्वर तक सीधे पहुंचाएं। सच्चे गुरु जीवन में किसी न किसी माध्यम से आ जाते हैं।

जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी के बर्तन को एक रूप को देकर उसे उपयोगी बनता है, उसी प्रकार सद्गुरु भक्तों के जीवन को सही दिशा प्रदान करते हैं, जीवन की ऊर्जा सही ओर लगती है। गुरु प्राप्त करना, धार्मिक होने का मतलब यह नहीं की कोई साधु संत बन गए, यह जीवन में संतुलन बनाने की राह को दिखाता है, सफलता की ओर ले जाता है। यह बहुत ग़लत धारणा है कि योग, ध्यान, धर्म, दान बुढ़ापे में किए जाने चाहिए। दिव्य प्रेम के सामने सारे सांसारिक प्रेम फीके और बौने हो जाते हैं।

गुरु दक्षिणा-सद्गुरु को धन, दौलत, अर्थ नहीं चाहिए, भक्त का 100 प्रतिशत समर्पण और प्रेम चाहिए।

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ईश्वर प्राप्त योगी श्री श्री परमहंस योगानंद जी ने सन् 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इंडिया, रांची में स्थापित की जिसकी शाखाएं आज पूरे विश्व में हैं। यहां क्रियायोग सिखाया जाता है, इस पर पूरा पाठ्यक्रम  उपलब्ध है जिसे इच्छुक भक्त अपने घर पर मंगवा सकते हैं और योगदा सत्संग के सन्यासियों के मार्गदर्शन में सीख सकते हैं।

(लेखक योगदा सत्संग सोसाइटी, पटना से जुड़े हैं)

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By Editor


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