संविाधन की प्रस्तवाना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ शब्द हटाने के कुप्रयास से भाजपा सरकार ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया कि अब यह देश न धर्मनिरपेक्ष है और न ही इस देश को गांधी और लोहिया के सोशलिज़्म की जरूरत है।

फोटो- pixgood.com
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-तबस्सुम फातिमा

26 जनवरी को सूचना प्रसारण मंत्रालय की ओर से जारी किए गए एक विज्ञापन में इन दो शब्दों के हटाने के पीछे की कहानी इतिहास से जुड़ी है। विचार करें तो हम इतिहास के ऐसे मोड़ पर हैं जहां देश को हिंदू राष्ट्र बनाये जाने  के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान को ताक पर रखने की राजनीति जोरों पर है। 2014 में भाजपा की जीत और 2015 तक आते-आते देश की एकता और गंगा-जमुनी संस्कृति को ध्वस्त करके हम अचानक गांधी से नाथुराम गोडसे, और धर्मनिरपेक्ष व सोशलिज़्म से हिंदू राष्ट्र की ओर कदम बढ़ा चुके हैं। शिवसेना भी इसकी मांग कर चुकी है, हिंदू महासभा और आरएसएस भी इतिहास और विचारधारा से अलग एक नये इतिहास की शुरुआत करने जा रहे हैं।

हिंदू महासभा की वापसी

1915 से 2015 तक सौ वर्षों में इतिहास ने नई करवट ली है। सौ साल पहले गांधीजी दक्षिण अव्रफीका से भारत लौटे थे। उसी साल वे भारत के स्वतंत्राता संग्राम में अहिंसा के विचार के साथ कूद पड़े थे। यह गांधी दर्शन था जो सौ वर्षों से हमारे साथ है। अब 2015 में गांधी-दर्शन की जगह गोडसे के विचार लेते जा रहे हैं। 13आप्रैल 1915 को अखिल भारतीय हिंदू महासभा की स्थापना हुई थी। अब सौ साल बाद हिन्दू महासभा की वापसी हो रही है। और इसके संस्थापकों में से एक पंडित मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न देने की घोषणा भी की जा चुकी है। हिंदू महासभा से संबंधित मदन सिंह मेरठ में गोडसे की मूर्ति लगाने की घोषणा करते हैं। अब गांधी की जगह हिंदुत्व के एजेंडे पर काम करने वाली भाजपा गांधी को धोखा और गोडसे को नए भारत और अखन्ड हिन्दू राष्ट्र के प्रतीक वेफ रूप में पेश कर रही है। भाजपा के साक्षी महाराज, गोडसे को देशभक्त बताते हैं। जैसे गांधी की जगह गोडसे को राष्ट्रपिता कहा जाए। करंसी नोट से गांधी की तस्वीर हटाइ जाए। पुस्तकों में गांधी-दर्शन की जगह गोडसे का हिंदूवादी-दर्शन पढ़ाया जाए। गोडसे की मूर्ति पूरे भारत में निर्मित की जाएं। गोडसे पर फिल्म बनाई जाए। और गांधी की शहादत के दिन को शौर्य दिवस के नाम से याद किया जाए। जो कल गांधी से भयभीत थे, आज गांधी उनके निशाने पर हैं।

हकीकत यह है कि गांधी अपनी हत्या के बाद भी जीवित रहे, क्योंकि उनके बिना भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की कल्पना अधूरी है। इसलिए उनकी शहादत के बाद गांधीदर्शन अधिक शक्तिशाली हो गया। आरएसएस और हिंदू महासभा उस दिन का इंतज़ार कर रहे थे जब उनकी सरकार हो तो गांधी के दर्शन पर गाडसे के अखन्ड भारत दर्शन को प्राथमिकता दी जा सके।

विरोधाभास है कि मोदी एक तरफ विकास, सफलता और देश को सुपर पावर बनाने का सपना देख रहे हैं और दूसरी ओर संकीर्णता और सांप्रदायिकता इस देश को सदियों पीछे ढकेल रही है। इसी देश में गांधी का जन्मदिन 2 अक्तूबर को मनाया जाता है और इस देश का एक बड़ा तबका भी 15 नवंबर को गोडसे के बलिदान दिवस के रूप में मनाता है। गोडसे के अखन्ड भारत की दलील को गांधी के धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी विचारों पर हावी करने की राजनीति अपना काम कर रही है। मोदी चुप हैं और यह कहना मुश्किल नहीं कि मोदी इसी विचार के प्रोडॉक्ट हैं, जो संघ और हिंदू महासभा के रास्ते गाडसे की दलीलों को अधिक शक्ति से प्रस्तुत करता है।

मोदी की मुश्किल

मोदी की मुश्किल है कि गुजरात का कलंक आज भी उनका पीछा नहीं छोड़ता है। आरएसएस और हिंदू महासभा की मुश्किल है कि गांधी की हत्या आज भी लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर लोगों को पसंद नहीं है। मोदी बहुत हद तक गुजरात हादसे को लेकर कानूनी उलझनों से दूर निकल आए हैं और हिंदू महासभा या संघ अब गोडसे के कलंक को धोकर उन्हें आदर्श का रूप देना चाहता है। मोदी की मुश्किल है कि बाहरी देशों में भारत की पहचान आज भी गांधी वेफ नाम से है। इसलिए वह चोर दरवाजे से गोडसे को नायक तो बना रहे हैं लेकिन वह विश्व राजनीति की बिसात पर खुद को गांधी से अलग नहीं कर सकते। वह ऐसा करते हैं तो विश्व मानचित्र पर जहां मीडिया उनकी ताजपोशी कर रहा है, वहां विश्व राजनीति में वह अपना सम्मान खो देंगे। मोदी की दूसरी मुश्किल यह है कि उनका नया दोस्त अमेरिका भी गांधी-गांधी का जाप करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत यात्रा आए तो सबसे पहले गांधी की समाधी पर गए और गांधी दर्शन को याद किया। और जाते-जाते मोदी को खबरदार भी कर गये अगर भारत का धर्म आधारित विभाजन होगा तो विकास नहीं कर पाएगा। ओबामा भारत के विकास को धार्मिक एकता में छिपा देखते हैं और यही गांधी का विचार था।

आरएसएस के सुपरमैन की मुश्किल यह है कि वह गांधी को कहां छोड़ें और गोडसे को कैसे गले लगाएं-? बाकी काम हिंदू महासभा और आरएसएस जैसे संगठन तो कर ही रहे हैं. गोडसे के अखन्ड भारत का पुराना सपना पूरा करने के लिए चुपचाप पहली गोली दाग दी गई है। यानी धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद जैसे शब्दों को संविधान से बाहर का रास्ता दिखाने का प्रयास शुरू कर दिया गया है।

   तबस्सुम फातिमा से [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है

By Editor

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