इशरत जहां एनकाउंटर के बहाने एक आईपीएस के रूप में मैं यह कह सकता हूं कि मुठभेड़ रचने वाले अधिकारी का एक मात्र मकसद प्रोमोशन या मेडल हासिल करना होता है.
अमिताभ ठाकुर
इशरत जहाँ मामले में तथ्यों का छिद्रान्वेषण किये बगैर मेरी व्यक्तिगत राय यही है कि यदि कोई भी व्यक्ति (जिसमे जाहिरा तौर पर अफसर भी शामिल हैं) चाहे वे सरकार के किसी भी विभाग का अंग हों, को अवश्य दण्डित किया जाना चाहिए, यदि साक्ष्य ऐसा कहते हों. मात्र अपनी आधिकारिक स्थिति के कारण किसी को भी कोई भी लाभ दिया जाना कदापि उचित नहीं माना जाएगा.
इशरत जहाँ मामले ने एक गंभीर प्रश्न यह खड़ा कर दिया कि ऐसा क्यों होता है कि हमारे देश में कई तफ्तीशें जल्द ही खेमेबंदी में परिवर्तित हो जाती हैं जिस के कारण देश की सर्वोच्च अन्वेषण ईकाई की विवेचना पर भी नाना प्रकार के वाद-विवाद शुरू हो जाते हैं.
कहावत है कि हमें सिर्फ ईमानदार होना नहीं चाहिए बल्कि ईमानदार दिखना भी चाहिए. सभी जांच एजेंसियों के लिए यह ब्रह्मवाक्य हो ताकि ना सिर्फ इन एजेंसियों की निष्पक्षता न सिर्फ बनी रहे बल्कि वह लगातार नज़र भी आये.
सोचने की जरूरत
इशरत जहाँ मामले ने एक बार फिर हमें इस ओर सोचने को मजबूर कर दिया है.
इशरत जहाँ केस पर कोई टिप्पणी किये बिना मैं यह कहना चाहूँगा कि एक अंदर के आदमी के रूप में मैं इस बात को बखूबी जानता हूँ कि यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश पुलिस में भी तमाम ऐसे एनकाउंटर रचे गए जिसमे एनकाउंटर रचने वाले पुलिस अधिकारी का एकमात्र ध्येय व्यक्तिगत हित था- चाहे वह मेडल के रूप में, प्रोमोशन, पोस्टिंग या मात्र अपने नंबर बढाने की चाहत. यह बात घृणित और दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन सच भी.
मैं हमेशा मोबाइल फोन के आगमन को फर्जी पुलिस मुठभेड़ पर रोक लगाने का सबसे बड़ा कारक समझता हूँ. फोन की बातचीत की रिकॉर्डिंग होने और फोन का टावर लोकेशन ज्ञात हो जाने की संभावना ने तमाम वरिष्ठ अधिकारियों को काफी चौंकन्ना कर दिया है और वे अब एनकाउंटर के बारे में कोई भी निर्देश देने से बहुत बचते हैं. हाँ, भारत में मोबाइल सुविधा की बढोत्तरी और पुलिस एनकाउंटर दर में कमी के बीच सीधा रिश्ता दिखाई पड़ता है. सवाल है- ऐसा क्यों?
और इशरत जहाँ एनकाउंटर के सन्दर्भ में मेरी आखिरी बात यह है कि काफी मनन और चिंतन के बाद मैं आज इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि किसी भी स्थिति में किसी के भी खिलाफ कभी भी “रचित पुलिस एनकाउंटर” चाहे वह आदमी आतंकवादी हो, भयावह अपराधी हो, नक्सली हो या अन्य कोई हो, जायज नहीं ठहराया जा सकता. कारण बहुत स्पष्ट है- यदि आज तुम किसी पुलिस वाले को यह छूट दे दोगे कि वह जरूरत के हिसाब से एनकाउंटर कर दे तो कल वह किसी भी कारण (राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक या कोई अन्य) से तुम्हारे भाई या बहन का भी ऐसा ही एनकाउंटर कर सकता है.
इसका मतलब यह नहीं कि मैं सजा-ए-मौत का भी विरोध कर रहा हूँ. सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया के बाद किसी को दिया गया मृत्युदंड पुलिस द्वारा मौके पर जीवन और मृत्यु के सम्बन्ध में अपने विवेक अथवा अपनी इच्छा से लिए गए निर्णय से पूर्णतया अलग है और समाज की जरूरत है.
अतः आज के दिन मेरा यह स्पष्ट विचार है कि किसी भी दशा में फर्जी मुठभेड़ ना हों, चाहे उस क्षण उसकी कितनी भी जरूरत महसूस क्यों ना हो रही हो. मृत्युदंड सहित सभी प्रकार की सजा का अधिकार और कार्य न्यायपालिका का ही रहने देना उचित है.
लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं और लखनऊ में उत्तर प्रदेश सरकार में कार्यरत हैं