टाइम मैगज़ीन के एिडटर एट लार्ज फरीद ज़कारिया आतंकवाद से निपटने के चार महत्वपूर्ण तत्वों की चर्चा कर रहे हैं. पढ़िये कि उनकी नजर में आतंकवाद से निपटने में कहां चूक हो रही है और क्या किया जाना चाहिए
दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के सालाना सम्मेलन में प्राय: चर्चा अर्थशास्त्र पर हावी रहती है और इस साल भी इससे अलग कुछ नहीं हुआ, लेकिन पेरिस में हुए आतंकवादी हमले से पश्चिम को जो सदमा पहुंचा है, उसका असर सम्मेलन पर मंडराता रहा। ऐसे में कई बार चर्चा कट्टरपंथी इस्लाम पर मुड़ गई। मैंने पिछले कॉलम में कहा था कि समस्या का समाधान मध्य-पूर्व एशिया में अौर अधिक अमेरिकी फौजी दखल में नहीं है। फिर सवाल उठता है कि इस समस्या का समाधान क्या है?
समस्या गहरी और इसकी मूलभूत संरचना से जुड़ी हुई है। (जैसा कि मैंने न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद न्यूजवीक में ‘वे हमसे नफरत क्यों करते हैं?’ शीर्षक से लिखे लेख में बताया था)।
दमनकारी शासन
अरब जगत में दशकों से दमनकारी तानाशाही शासन रहे हैं (विचारधारा से ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष)। इनके कारण अत्यधिक अतिवादी (ज्यादातर धार्मिक) विपक्षी आंदोलनों का जन्म हुआ। इस्लाम विरोध की भाषा बन गया, क्योंकि यह ऐसी आवाज थी, जिसे दबाया अथवा उस पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता था। अब चूंकि अरब जगत की पुरानी व्यवस्था चरमरा रही है तो इसने अस्थिरता को जन्म दिया है और जेहादी गुटों के लिए नई जमीनों पर फलने-फूलने का मौका मुहैया कराया है।
पिछले कुछ दशकों में यह अतिवादी इस्लामी विचारधारा का वैश्वीकरण हो गया है। यानी यह दुनिया के कई इलाकों में फैल गया है। इसे शुरुआत में सऊदी अरब से आए धर्म और असंतुष्टों, इमामों बुद्धिजीवियों ने हवा दी और अब यह अपने बूते बढ़ रहा है। आज यह दुनियाभर में छोटे-से अलग-थलग पड़ चुके मुस्लिमों के गुस्से, अंसतोष और हिंसक विरोध की विचारधारा बन गया है। अपनी ये भावनाएं व्यक्त करने के लिए वे इस विचारधारा का इस्तेमाल कर रहे हैं। केवल मुस्लिम खासतौर पर अरब जगत के लोग इस मानवता को लगे कैंसर का इलाज कर सकते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं है कि इस समस्या का समाधान तलाशने में अमेरिका और पश्चिमी जगत असहाय हो गए हैं। वॉशिंगटन और उसके सहयोगी, मध्यमार्गी मुस्लिमों का समर्थन कर सकते हैं। उनके सामाजों को आधुनिक बनाने में मदद कर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं और जो आधुनिक समाजों के साथ एकीकृत होना चाहते हैं, उन्हें एकसूत्र में बांध सकते हैं। किंतु यह लंबे समय चलने वाला काम है।
अतिवाद से निपटने के चार तत्व- आईसीआईआर
इस बीच, वॉशिंगटन और इसके सहयोगियों को एक ऐसी रणनीति अपनानी चाहिए, जिसमें ये चार तत्व हों : खुफिया जानकारी इकट्ठा करना, आतंकवाद विरोध, एकीकरण और लचीलापन (आईसीआईआर)।
एक– खूफिया जानकारी
स्वाभाविक रूप से खुफिया जानकारी इकट्ठा करना पहली रक्षापंक्ति है, लेकिन समस्या पर हमले के लिए यह बहुत जरूरी भी है। हमें यह जानना ही होगा कि जेहादी और संभावित जेहादी कहां पर मौजूद हैं और वे किस साजिश में लगे हैं। इसका मतलब है कि अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी की मदद से विभिन्न प्रकार के संचार संवाद के साधनों की जांच-पड़ताल। किंतु इसका यह अर्थ समुदायों के साथ अच्छे संबंध विकसित करना भी है। यह बहुत निर्णायक तत्व है। कानून-व्यवस्था से जुड़े ज्यादातर पेशेवर दलील देंगे कि भरोसा पैदा करने की कुंजी इस बात में है कि स्थानीय मुस्लिम समुदायों से संबंध कायम किए जाएं ताकि उन लोगों की पहचान समय रहते की जा सके, जो आगे जाकर खतरा पैदा कर सकते हैं। जैसा कि 2010 में कांग्रेस के सामने सुनवाई के दौरान लॉस एंजिलिस काउंटी के शेरिफ ने कहा था, ‘रिश्ते बनाने के लिए निकाली गई जानकारी ज्यादा विश्वसनीय होती है।’
दो- मुकबला
खुफिया जानकारी इकट्ठी करने के बाद आतंकवाद से मुकाबले की बात अपने जाती है। जब आपको पता चल जाए कि दुष्ट लोग कहां हैं तो उन्हें पकड़ें या खत्म कर दें। ऐसा कहना, करने की तुलना में बहुत आसान है। किंतु अमेरिका और अन्य पश्चिमी राष्ट्रों को इस रणनीति में काफी कामयाबी हासिल हुई है। सिर्फ अफगानिस्तान पाकिस्तान जैसे संघर्ष क्षेत्रों में बल्कि पेरिस लंदन जैसी जगहों पर वारदातें करने के लिए रची जा रहीं साजिशों का पता लगाने में भी यह बहुत कारगर रही है। आतंकवाद से मुकाबला करने के सारे प्रयासों में खामियां होती हैं। आसमान से देखने पर ड्रोन हमले बहुत अचूक दिखाई देते हैं, लेकिन उनमें बेगुनाह लोग भी निशाना बन ही जाते हैं। विशेष बलों के अभियान ज्यादा कारगर अचूक होते हैं। हालांकि, यह सही है कि उनमें अमेरिकी (या अन्य पश्चिमी देशों) के फौजियों के हताहत होने की ज्यादा आशंका रहती है। ‘फॉरेन अफेयर्स’ में 2013 में प्रकाशित आतंकवाद विरोधी कार्रवाई से संबंधित इंटरव्यू में सेवानिवृत्त जनरल स्टेनली मैकक्राइस्टल ने कहा था, ‘अमेरिकियों को यह समझना होगा कि यदि हम अपनी प्रौद्योगिक क्षमताओं को लापरवाही से इस्तेमाल करेंगे तो यदि कोई उसकी बराबरी का जवाब दे तो हमें विचलित नहीं होना चाहिए। यह जवाब सेंट्रल पार्क में आत्मघाती बम धमाका भी हो सकता है, क्योंकि वे इसी के जरिये जवाब दे सकते हैं। हालांकि, मुझे नहीं लगता कि हम टेक्नोलॉजी का लापरवाह इस्तेमाल करते हैं, लेकिन ऐेसा किए जाने का खतरा हमेशा बना रहता है।
तीन-एकीकरण
जहां तक अन्य समुदायों को अपनाने की बात है, इसे अमेरिका बहुत अच्छी तरह करता है जबकि यूरोप को ऐसा करने में संघर्ष करना पड़ता है। न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद अनुमान लगाया गया था कि अमेरिका को कई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, लेकिन उसके सामने उतनी समस्याएं आईं नहीं। इसकी वजह यह रही कि उसका मुस्लिम समुदाय राष्ट्र के साथ घुला-मिला हुआ है तथा वफादार है और मोटेतौर पर उसे अमेरिकी मूल्यों पर भरोसा है। यूरोप को अब भी उन लोगों समुदायों को अपनाने में बहुत चुनौतियां पेश आती हैं, जो नए और अलग हैं।
चार– लचीलापन
अंत में लचीलापन। आतंकवाद असामान्य रणनीति है। यदि हम आतंकित हों तो यह काम नहीं करती। ऐसी घटनाएं होने पर फिर पूरी ताकत से सामान्य स्थिति में लौट आने से आतंकवाद का वांछित असर नहीं हो पाता। हम हमेशा ही ऐसा करने में कामयाब नहीं हुए हैं। हाल ही के महीनों में हमने आईएसआईएस के खून-खराबे वाले वीडियो पर बड़े पैमाने पर जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया दिखाई है। ऐसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा से तो उन्हें जारी किया गया था।
पेरिस में हुए हमले उतने ही बर्बर थे, जिसने ओटावा, सिडनी, लंदन, मैड्रिड और फोर्ट हुड में हुए हमले। ऐसे में आंकड़ों से उचित दृष्टिकोण मिल सकता है। ग्लोबल टेरेरिज्म डेटाबेस के अनुसार 12 सितंबर 2001 और 2013 तक के 12 वर्षों में अमेरिका में आतंकवाद से मारे गए लोगों की संख्या 42 है। ( छह तो 2012 में मिलवॉकी गुरुद्वारा हमले में ही मारे गए थे।) उधर, सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन की रिपोर्ट के मुताबिक 2011 में आग्नेय शस्त्रों के इस्तेमाल से 32,351 लोगों ने जान गंवाई तो 33,783 लोग ट्रैफिक दुर्घटनाओं में मारे गए। इसीलिए ‘शांत रहो, चलते रहो’ टी शर्ट पर लिखे जाने वाले स्लोगन से कहीं ज्यादा अर्थपूर्ण है।
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