बीसवीं सदी के अंतिम दो दशक एवं इक्कसवीं सदी के प्रथम दो दशक को मानव सभ्यता एवं इतिहास का एक अहम पड़ाव कहा जा सकता है। इस अवधि में मानव इतिहास की जीवन शैली, परम्पराओं और उनकी विरासत के साथ गंभीर छेड़-छाड़ किया गया है जिससे मानवता कलंकित हुई है.
गालिब खान
इसे अनेकों घटनाओं या परिवत्र्तन के सहारे समझा जा सकता है। यू0एस0एस0आर0 का विघटन एवं इससे उपजी नव उदारवाद पूंजी पर निर्मित एक धु्रवीय दुनिया के कथित नायकों के नेतृत्व में वित्तिय प पूंजी आधारित विकास का वर्चस्ववादी माॅडल हो, जिसमें सब कुछ एक उत्पाद है। साथ ही जिसे महिमामंडित करता इल्कट्रोनिक चैनल तथा इन चैनलों का बढ़ता टी0आर0पी0 हो या पूंजी का वर्चस्ववादी लोकतात्रिंक चेहरा।
कथित आधुनिक लोकतात्रिंकवादियों एवं वित्तिय पूंजी के इस अमानवीय, मानवता या सभ्यता विरोधी कृत को समझना हो तो ब्रिटेन सरकार द्वारा इराक युद्ध पर गठित चिलकाॅट कमिटि की रिपोर्ट को देखा जा सकता है। इसके सहारे नवउदारवादी पूंजी के तिकड़म को समझा जा सकता है। इसके सहारे इन कथित लोकतंत्रिक सरकार की मानव सभ्यता विरोधी घिनौने चेहरे और विकासशील देषों के प्राकृतिक संसाधनों (कच्चा तेल) पर अधिपत्य के छल-प्रपंच को समझा जा सकता हैं।
इराक यु़द्ध (2003) पर चिलकाॅट कमिटि ने सात वर्षो के गहन छान-बीन के उपरांत ठोस साक्ष्यों के आधार पर जो रिर्पोट आज दुनिया को पढ़ने को उपलब्ध कराया है वह अमेरिका द्वारा इराक पर किये गये हमले में ब्रिटेन की सहभागिता को उजागर करता है.
आधुनिक युग के इन महाशक्तियों द्वारा सदियों पुरानी सभ्यता-संस्कृति पर वर्चस्व वादी इस घिनौने, अमानवीय, अलोकतांत्रिक, अनैतिक एवं मानवता विरोधी एकतरफा आक्रमकता को समझना हो तो इसे दो तरह से समझा जा सकता है।
प्रथम, वास्तव में इराक में हुआ क्या? दूसरे, ब्रिटेन (टाॅनी ब्लेयर) और अमेरिका ने अपनी वर्चस्वादी सत्ता का सहारा लेकर पागलपन की किन-किन हदों को पार कर दिया? तो आईये पहले समझे इराक में क्या हुआ था? क्या-क्या किया गया था?
इराक युद्ध की यह खबर पहली बार न्यूयार्क टाइम्स की रिर्पोटर शैला दिवान ने दुनिया के सामने लाया। शैला की रिपोर्ट के अनुसार इराक में शुरु यह जंग बसरा में 6 अप्रैल 2003 को पहुचीं। हाँ वही बसरा जहां की सेन्ट्रल लाइब्रेरी में न जाने कितनी दास्ताने, इतिहास, पाण्डूलिपियां, पुस्तक, दस्तावेज के रुप में सुरक्षित थी जो न केवल मानव इतिहासों को सुरक्षित किये हुए थी बल्कि दुनिया के कई सभ्यताओं-सस्ंकृतियों की दास्तान अपने सीने में सुरक्षित किये हुई थी।
इस ऐतिहासिक लाइब्रेरी का ध्वंस, सभ्यता का ध्वंस
मगर इस इराक युद्ध ने बसरा की इस सेन्ट्रल लाइब्रेरी को जलाकर खाक कर दिया। शैला दिवान ने लाइब्रेरी और इस लाइब्रेरी की लाइब्रैरीयन आलिया के बारे में पहली बार होटल हमदान (बसरा) में सुना। होटल हमदान बसरा सेन्ट्रल लाइब्रेरी के पास ही था. शैला के अनुवादक ने उसे बताया कि होटल हमदान के मैनेजर अनीस मोहम्मद के पास युद्ध संबंधी एक गजब की कहानी है। शैला ने अनीस से समय तय कर पुरी कहानी सुनी। अनीस और बसरा सेन्ट्रल लाईब्रेरियन की आलिया ने जो कहानी न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्टर शैला दिवान को सुनाया जिसका लब्बा-ओ-लूबाब इस प्रकार हैं:-
कुरान में खुदा ने मोहम्मद से जो पहली बात कही की वो थी ‘‘पढ़ो’। रेतिले इराक में समुद्र के किनारे बसरा नाम का एक बड़ा शहर है। आलिया मोहम्मद बकर बसरा की लाइब्रेरियन थी। बसरा की यह लाइब्रेरी वहां की सभी पुस्तक प्रेमियों के मिलने का अड्डा था। वहां न केवल दुनियाँ न जहाँ न की चर्चा-विमर्ष होता था बल्कि वहां लोग धर्म और आत्मा के बारे में भी चर्चा करते थें। पर यह सब पुरानी बात है। अब तो लोग बस युद्ध और जंग की ही बात करते हैं।
आलिया को डर है कि कहीं जंग की आग में लाइब्रेरी की पुस्तकें न जल जाएँ। वो किताब सोने के पहाड़ से भी ज्यादा बेशकीमती थी। लाइब्रेरी मे हरेक भाषा की किताबें थीं। कुछ किताबें नई थीं, कुछ पुरानी। लाइब्रेरी में मोहम्मद साहिब की एक जीवनी भी थी, जो सात सोै साल पुरानी थी। आलिया ने लाइब्रेरी को किसी सुरक्षित जगह पर ले जाने के लिए बसरा के गवर्नर की अनुमति मांगी। गवर्नर ने साफ इंकार कर दिया।
तब आलिया ने खुद ही इस काम को करने की ठानी। काम खत्म होने के बाद वो हरेक रात को अपनी कार में छिपाकर किताबें भरती और फिर उन्हें अपने घर ले आती। जंग की फुसफुसाहट तेज गूंज में बदलने लगी। सरकारी दफ्तरों ने लाईब्रेरी में आकर अपना अड्डा जमाया। छतों पर बंदुकधारी फौजी पहरा देने लगे। आलिया बस इंतजार करती रही। उसे एक भंयकर हादसे का डर था?
धीरे-धीरे अफवाहें असलियत में बदलने लगी। बसरा में जंग छिड़ गयी। पूरा शहर बमों की आग में झुलसने लगा। बंदुकों के धमाके सभी जगह गुंजने लगी। धीरे-धीरे लाइब्रेरी में काम करने वाले सारे लोग, सरकारी मुलाजिम और फौज के सिपाही भी लाइब्रेरी को छोड़ कर चले गये। आलिया इस नजारे को देखती रही। आखिर में किताबों की हिफाजत करने के लिए सिर्फ आलिया ही बची।
लाइब्रेरी बचाने का जोखिम
सारी रात आलिया, अनीस और उसके भाई और आस-पास के दुकानदार और पड़ोसी लाइब्रेरी की आलमारियों से किताबें निकाल-निकाल कर, उन्हें सात फीट उंची दीवार के ऊपर से ढोकर अनीस के होटल में जाकर छिपाते रहें। किताबें सुरक्षित तरीके से छिपी रहीं, युद्ध चलता रहा। फिर नौ दिनों बाद लाइब्रेरी में आग लगी और वो जल कर खाक हो गयी।
अगले दिन फौजी अनीस के होटल में आयें, ‘‘तुम्हारे पास यह बंदूक क्यों हैं?’’ उन्होंने पूछा। ‘‘अपने धंधे की हिफाजत के लिए’’ अनीस ने जवाब दिया। फौजी होटल की षिनाख्त किये बिना ही चले गए। अनीस मन ही मन खुष हुआ, ‘‘ इन्हें क्या पता कि मेरे होटल में समूची लाइब्रेरी छिपी है।’’ लड़ाई जारी रही। आलिया को पता था कि किताबों की ठीक हिफाजत के लिए शहर में शांति के समय किसी और जगह पर जाकर छिपाना होगा। वो एक भाड़े के ट्रक में लाइब्रेरी की तीस हजार किताबों को अपने घर और अपने दोस्तों के घरों में जाकर छिपाती है।
आलिया का सारा घर किताबों से भर जाता है। जमीन पर, आलमारियों में, खिड़कियों पर, सभी तरफ किताबें ही किताबें नजर आती है। घर में बाकी किसी और चीज को रखने की जगह ही नहीं बची। आलिया जंग के खत्म होने का इंतजार करती है। वो इंतजार करती है और अमन-चैन के सपने संजोती है। वो इंतजर करती है …………… और एक नयी लाइब्रेरी का सपना संजोती है।
रिपोर्ट- द इराक एन्क्वायरी
अब जंग खत्म होने के सात साल बाद चिलकाॅट कमिटि की रिपोर्ट ‘‘द इराक इन्क्वायरी’’ दुनिया के सामने है। रिर्पोट तथ्यों के आधार पर चिख-चिख कर कहती है-टाॅनी ब्लेयर (उस समय के तत्कालीन ब्रिटिष प्रधान मंत्री) और जार्ज बुश ‘‘युद्ध अपराधी’’ हैं। मगर लोकतंत्र के कथित पुरेधे ‘‘मौन’’ हैं। मगर आलिया का ‘‘सपना लोकतंत्र’’ है, जिसे लोकतंत्र के आधुनिक पुरेधा इराक में अपने बूट के निचे रौंद चुके हैं।
कहां गये चीखने-चिल्लाने वाले मीडिया
क्या दुनिया कुछ बोलेगी? मीडिया अपने-अपने चैनलों पर सार्थक विमर्श करायेगा? देष और दुनिया के ‘‘संसदो’’ में लोकतंत्र के इस जबरन हत्या के पक्ष में कोई आवाज उठायेगा? क्या इन युद्ध अपराधियों को कोई सजा मिलेगी? क्या दो राष्ट्राध्यक्षों के इस सनकी फैसले और सांठ-गांठ से अरब देषों में समाजिक संपत्ति की जो छती हुई है, उसका कोई आकलन और भारपाई होगा? बसरा (इराक) की ‘‘लाइब्रेरियन आलिया’’ इस स्वपन यानी लोकतंत्र की इंतजार में आलिया कब तक बैठी रहेगी? क्या कोई उसे कुछ बतायेगा? क्योंकि लोकतंत्र एक सपने ही का तो नाम है? आज की तारिख में इस स्वप्न (लोकतंत्र) पर बढ़ते खतरों के ही विरोध में तो रोहित वेमूला, कन्हैया और लाखों-लाख लोकतंत्र समर्थकों ने आवाज बुलन्द की। इस आवाज बुलन्द करने की किमत किसी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी, तो किसी को देश द्रोह के नाम पर जेल की सलाखों के अंदर जाना पड़ा? हे तथाकथित लोकतंत्र वादियों, याद रखो बहुत जल्द तुम्हारा अश्वमेध रूकेगा।
[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/07/ghalib.jpg” ]गालिब खान जन आंदोलनों से जुड़ा एक जाना-पहचाना नाम है. वह सामयिक विषों पर अपने गंभीर लेखन और एक्टिविज्म के लिए चर्चित हैं. उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है[/author]