प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुजफ्फरपुर से शुरू हुई परिवर्तन रैली में भीड़ लगातार बढ़ती गयी, लेकिन उनका तल्ख तेवर भागलपुर पहुंचते-पहुंचते मधिम पड़ने लगा है। इसके कारण को लेकर विवाद हो सकता है। लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि बिहार के भारी-भरकम दिखने वाले नेताओं का कद-कद भी धीरे-धीरे छोटा होने लगा है। वे हाशिए पर दिखने लगे हैं।
वीरेंद्र यादव
परिवर्तन रैली के पहले तक भाजपा के प्रचार होर्डिंगों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अध्यक्ष अमित शाह के साथ विधानमंडल दल के नेता सुशील कुमार मोदी, नेता प्रतिपक्ष नंद किशोर यादव व प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय की तस्वीर नजर आती थी। लेकिन अचानक होर्डिंगों पर सिर्फ नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही बच गए। यहां तक कि मिलन समारोह वाले पोस्टर-बैनरों में पीएम व शाह के साथ मिलने वाले नेता की तस्वीर बड़ी होती गयी और प्रदेश स्तरीय तीनों नेता की तस्वीर नेताओं की तस्वीरों की सीरिज के हिस्सा बन गए।
सतर्कता जरूरी
चुनाव अभियान से प्रदेश के शीर्ष नेताओं की उपेक्षा या अनदेखी का खामियाजा भी भाजपा को उठाना पड़ सकता है। भागलपुर में प्रधानमंत्री खुद इस बात को दुहरा रहे थे कि चुनाव विधान सभा का हो रहा है, इसलिए राज्य सरकार को जबाव देना चाहिए कि उसने क्या किया। लेकिन पार्टी मंच पर वे भूल जाते हैं कि यह बिहार का चुनाव है और इसके लिए बिहार का चेहरा भी चाहिए। सीएम उम्मीदवार के चेहरे को लेकर पार्टी में विवाद हो सकता है। लेकिन विधानमंडल के प्रमुख पदों पर बैठे नेताओं को भी किनारा कर देना उचित नहीं हो सकता है।
सामूहिक नेतृत्व से ज्यादा जरूरी सामूहिक जिम्मेवारी
भाजपा हर बार सामूहिक नेतृत्व की बात करती है और कहती है कि फैसला मिल-बैठकर कर लेंगे। लेकिन सामूहिक जिम्मेवारी की बात कोई नहीं करता है। यही कारण है कि दिल्ली में एक दिखने वाली पार्टी पटना पहुंचेत ही कई खेमों में बंट जाती है। यहां तक कि भाजपा के तत्वावधान में आयोजित परिवर्तन रथ को भी हिस्सों में बांट दिया गया है और इसके साथ ही उसका नेतृत्व भी बांट दिया गया है। संगठन के स्तर ही देंखे तो अनंत कुमार चुनाव प्रभारी है, भूपेंद्र यादव बिहार प्रभारी हैं और हुकुमदेव नारायण यादव चुनाव प्रचार प्रभारी हैं। इतने प्रभारियों के बीच पार्टी कहां बच जाती है।
पीएम की यात्रा का साइड इफेक्ट
पीएम की यात्रा से निश्चित रूप से कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ता है, उनका मनोबल ऊंचा होता है। लेकिन इसके साइड इफेक्ट का भी खतरा कम नहीं है। प्रधानमंत्री की यात्रा से राज्य स्तरीय नेतृत्व का जनता के बीच असर कम होता है। जनता के साथ उनका भावनात्मक जुड़ाव भी कम होता है। भाजपा को इससे भी सचेत रहना चाहिए। भाजपा को कंपेन लीड करने का जिम्मा स्थानीय नेताओं को ही सौंपना चाहिए। यह भी तय है कि भाजपा के सहयोगी दलों का संयुक्त कंपेन भी संभव नहीं है। पूरा चुनाव प्रचार भाजपा के लिए एक चुनौती है और इसमें दिल्ली से उतरे नेताओं का दखल माहौल को असहज बना सकता है।