बीते दिन राजद अध्यक्ष से जीतन राम मांझी की मुलाकात यकीनन सिर्फ कुशलक्षेम पूछने तक सीमित नहीं थी. पर सवाल यह है कि मांझी ने लालू प्रसाद से मिल कर क्या बात की?
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
कभी-कभी सार्वजनिक जीवन में कुछ फैसलों की आंच लम्बे समय तक बनी रहती है. मांझी उसी आंच की तपिश को झेल रहे हैं. भाजपा संग चुनावी गठजोड़ का नतीजा सिफर रहने के बाद मांझी मजधार में हैं. भाजपा उन पर तवज्जो नहीं दे रही. जो सब्ज बाग उसने मांझी को 2014 में दिखाये थे, वह सब्जबाग आज तक हसीन सपने ही बने हुए हैं. मांझी का भाजपा से मोहभंग हो चुका है. उनकी राजनीतिक पीड़ा यह भी है कि मांझी की पार्टी हिंदुस्तान अवामी मोर्चा 2015 विधानसभा चुनाव में बुरी तरह परास्त हो कर थक हार चुकी है. हम के विधायक दल में तन्हा मांझी हैं. उनके दो-तीन कद्दावर नेता जो साथ थे, वो भी जद यू के खाने में जाने के लिए ताक-झांक कर रहे हैं. वृष्ण पटेल खुद को बयानों तक सीमित कर चुके हैं. नरेंद्र सिंह , मांझी के साथ हो लेने से हुए नुकसान की कीमत अदा कर रहे हैं. शाहिद अली खान, जो नीतीश मंत्रीमंडल में कभी कद्दावर मंत्री हुआ करते थे, आज मांझी संग आ कर अपने सियासी वजूद पर मरसिया पढ़ रहे हैं.
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नरेंद्र सिंह, वृषण पटेल, शाहिद अली खान- सबके सब नीतीश की गुडबुक के कभी चमकते सितारे थे, ठीक मांझी की तरह. इन तमाम नेताओं ने नीतीश के संकटकाल में उनके जख्म पर पर नमक छिड़कने के लिए मशहूर रहे हैं. लेकिन अब नीतीश विरोध के उनके एक सियासी फैसले ने उन्हें हाशिये पर ढकेल रखा है.
सरक्षित किनारे की तलाश
ऐसे में मांझी भी अब सुरक्षित किनारे की तलाश में हैं. वह स्वभाव से सामाजिक न्याय के सिपाही हैं, पर सत्ता की असीम चाह ने उन्हें दक्षिण पंथ की तरफ जाने को बेबस किया. पर उनकी यह रणनीति नाकाम रही. लेकिन अब जबकि वह लालू से मिले हैं तो क्या कोई सुफल निकलेगा? इस सवाल के जवाब में, जवाब कम और सवाल ही ज्यादा हैं.याद कीजिए 2015 विधानसभा चुनावों के दौरान लालू प्रसाद का वह सार्वजनिक बयान जिसमें उन्होंने मांझी को महागठबंधन का हिस्सा बनाये जाने की वकालत की थी. पर उनकी वह कोशिश व्यवहार में नहीं उतर पायी.
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समझा जाता है कि नीतीश कुमार ने लालू को बताया था कि मांझी ने उनके साथ भीतरघात किया ऐसे में मांझी को साथ लाने का सवाल कहां. और जब महागठबंधन उम्मीदों से ज्यादा बड़ी जीत दर्ज कर सत्ता में आया तो मांझी की उसको जरूरत क्या. उधर राजद ने मंत्रिमंडल गठन के दौरान जद यू के एक दलित नेता को मंत्री नहीं बनने दिया था, जिसे हर हाल में नीतीश बनाना चाहते थे. ऐसे में नीतीश भला क्यों चाहेंगे कि मांझी को एनडीए का हिस्सा बनने दिया जाये.
ऐसे में मांझी के सामने विकल्प बचता है कि वह हिंदुस्तान अवामी मोर्चा का या तो विघटन करें या दल को तोड़ कर राजद में विलय करें. तकनीकी तौर पर राजद में शामिल होने पर नीतीश को कम ऐतराज होगा, पर उन चेहरों को जिनने नीतीश को बड़े जख्म दिये हैं, वो कैसे भुला पायेंगे. वैसे फिलाहल न तो लोकसभा का चुनाव होना है और न ही विधानसभा का. ऐसे में लालू प्रसाद को भी, मांझी को ले कर कोई जल्दबाजी नहीं होगी. हां मांझी अगर राजद के करीब आये तो इससे एनडीए के विखराव के रूप में प्रचारित करने का बहाना तो मिलेगा ही.