पत्रकारिता की सत्ता से बेदखली और कांग्रेसी राजनीति की नाकामी का दंश झेल चुके एमजे अकबर ने भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने में 10 साल लगा दिये.
वह 2004 में वाजपेयी के करीब आये थे.पूरे देश में इंडिया शइनिंग की लहर थी और मीडिया का बड़ा हिस्सा अटल बिहारी की सरकार की पुनर्वापसी की संभावना जता रही थी. लेकिन तब अचानक भाजपा हार गयी, और तब एमजे अकबर भाजपा में शमिल होने की अपनी योजना बदल दी थी.
भाजपा की हार के बाद वह राजनीति में जाने के बजाय इंडिया टुडे की पत्रकारिये सत्ता सिंहासन का हिस्सा बन गये. लेकिन ज्यादा दिन यहां नहीं रहने दिया गया.
एमजे अकबर इससे पहले कांग्रेस में रह चुके हैं. लेकिन बाद में फिर वह पत्रकारित में वापस चले गये.दर असल एमजे अकबर की पूछ कांग्रेस में नहीं थी. हलांकि 1980 के दशक में वह कांग्रेस में शामिल भी हुए और बिहार से लोकसभा सांसद भी बने. पर उसके बाद वह कभी एक्टिव पालिट्किस में जगह नहीं बना पाये.
एशियन एज, इंडिया टुडे जैसे बड़े बैनरों के शीर्ष पदों पर काम कर चुके अकबर पिछले कई सालों से राजनीति में भाग्य आजमाने की बात सोचते रहे हैं.
एमजे अकबर राजनीति और पत्रकारित के बीच एक दुविधा क नाम है. कांग्रेस में उनकी कोई राजनीतिक पहचान नहीं बनी तो वह फिर पत्रकारित में वापस आ गये.
जब जब लोकसभा चुनाव होता है वह किसी न किसी राजनीतिक पार्टी से निकटता बनाते रहे हैं. 2004 में भाजपा के करीब पहुंचे और जब भाजपा हार गयी तो वह भी किनारे हो गये. 2009 के लोकसभा चुनाव के समय वह जनता दल यू के करीब पहुंच गये थे. और खबर यहां तक है कि 20111 तक वह इस कोशिश में लगे रहे कि जद यू उन्हें राज्यसभा में भेज दे, लेकिन जद यू नेतृत्व ने पहले एक पत्रकार अली अनवर को और फिर दूसरे पत्रकार हरिवंश को राज्सभा भेज दिया जिससे उनकी उम्मीदें खत्म हो गयीं.
उनके इस कदम को लेकर ट्विटर पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. 80 के दशक में उनके कांग्रेस के साथ जुड़े होने पर भी लोग टिप्पणी कर रहे हैं।
एक ट्वीट में उनकी पत्रकारिता की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़ा किया गया. इस ट्वीट में पूछा गया है कि एमजे अकबर एक पत्रकार हैं और पत्रकारों का राजनीतिक पार्टियों से जुड़ना क्या पत्रकारिता की निष्पाक्षता पर संदेह पैदा नहीं करता?