सीएसडीएस के डायरेक्संटर जय कुमार बिहार के चुनावों में मुस्लिम-यादव मजबूत गोलबंदी के आधार पर बता रहे हैं कि एक तरफ भाजपा गठबंधन मुश्किल में घिरता जा रहा है वहीं जद यू के लिए भी संकट खड़ा हो गया है.
करीब डेढ़ दशक पहले (1990 में), जब भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी अपनी प्रसिद्ध देशव्यापी रथयात्र पर निकले थे, लग रहा था कि उनके उभार को कोई रोक नहीं पायेगा, लेकिन बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने सीतामढ़ी में उनकी रथयात्रा पर ब्रेक लगा दी थी. 2014 में भी, जब अन्य पार्टियां इस चिंता में डूबी दिख रही हैं कि आम चुनाव में मोदी लहर को कैसे रोका जाये, लग रहा है कि लालू प्रसाद मजबूती से उभर सकते हैं और कम-से-कम बिहार में इस लहर पर ब्रेक लगा सकते हैं. बिहार के बीते कुछ हफ्तों के राजनीतिक घटनाक्रम पर गौर करें, किशनगंज से जदयू उम्मीदवार अख्तरुल इमाम के मतदान से महज कुछ दिन पहले मैदान से हटने के बाद मुसलिम मतों के राजद-कांग्रेस-राकांपा गंठबंधन के पक्ष में एकजुट होने के संकेत मिल रहे हैं. कम-से-कम किशनगंज में तो यही उम्मीद जतायी जा रही है कि मुसलिम मतदाता एकजुट होकर मौजूदा सांसद एवं कांग्रेस प्रत्याशी मोहम्मद असरारुल हक के पक्ष में मतदान कर सकते हैं. इससे किशनगंज में भाजपा की मुश्किलें बढ़ गयी हैं. हालांकि भाजपा-लोजपा गंठबंधन की असली चिंता इस बात को लेकर है कि किशनगंज में जदयू प्रत्याशी के मैदान से हटने और राजद-कांग्रेस-राकांपा के पक्ष में मुसलमानों के एकजुट होने का निकले संदेश उन संसदीय क्षेत्रों में भी मुसलिम मतदाताओं के रुझान को प्रभावित कर सकते हैं, जहां मुसलिम मतदाता अच्छी-खासी संख्या में हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में जदयू के साथ गंठबंधन के कारण भाजपा ने उन संसदीय क्षेत्रों में भी अच्छा प्रदर्शन किया था, जहां मुसलिम मतदाता काफी संख्या में हैं. जाहिर है, मुसलिम मतों के भाजपा से दूर होने और राजद-कांग्रेस-राकांपा के पक्ष में एकजुट होने से भाजपा को बड़ा झटका लग सकता है.
17 प्रतिशत मुस्लिम
बिहार में कुल मतों में मुसलिम मतदाताओं की हिस्सेदारी करीब 17 फीसदी है, पर कुछ क्षेत्रों में सिमटे होने और ज्यादातर चुनावों में किसी एक पार्टी के पक्ष में एकजुट होकर वोट देने के कारण ये राज्य के कुछ संसदीय क्षेत्रों में नतीजे को प्रभावित करते रहे हैं. मसलन, किशनगंज, अररिया व कटिहार संसदीय क्षेत्रों में मुसलिम मतदाताओं की मौजूदगी 35 फीसदी से अधिक हैं. कई अन्य क्षेत्रों में मुसलिम मतदाताओं की संख्या कुल मतदाताओं के 20 से 35 फीसदी के बीच हैं. जैसे- पश्चिम चंपारण, मधुबनी, पूर्णिया, दरभंगा, सीवान, सीतामढ़ी और भागलपुर.
कुछ अन्य क्षेत्रों, जैसे- वाल्मीकि नगर, शिवहर, सुपौल, मुजफ्फरपुर, वैशाली, गोपालगंज, बेगूसराय और सीतामढ़ी में कुल मतों में मुसलिम मतदाताओं की हिस्सेदारी करीब 15-16 फीसदी है. राज्य के उन दस संसदीय क्षेत्रों में, जहां मुसलिम मतदाता 20 फीसदी से अधिक हैं, पिछले आम चुनाव में जदयू-भाजपा गंठबंधन को 8 सीटें मिली थीं. दो अन्य सीटों में किशनगंज से कांग्रेस के मोहम्मद असरारुल हक विजयी रहे थे, जबकि सीवान में निर्दलीय ओमप्रकाश यादव को कामयाबी मिली थी. मुसलिम बहुल क्षेत्रों में जदयू-भाजपा की बड़ी कामयाबी की बड़ी वजह थी मुसलिम मतों का राजद और कांग्रेस में विभाजित होना. 2009 में दोनों दलों का गंठबंधन नहीं हुआ था. 2009 से पहले के कुछ चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में मुसलमानों ने राजद के पक्ष में बड़ी संख्या में मतदान किया था, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान मुसलिम मतदाताओं के केवल 30 फीसदी वोट ही राजद के खाते में गये थे, जिससे तब राजद-लोजपा गंठबंधन को बड़ा झटका लगा था.
ध्रुवीकरण
2014 के आम चुनाव में इस बात को लेकर भले अलग-अलग कयास लगाये जा रहे हैं कि बिहार में किस पार्टी या गंठबंधन के खाते में कितनी सीटें जाएंगी, पर ज्यादातर का अनुमान यही है कि नीतीश कुमार को सबसे ज्यादा नुकसान हो सकता है, जबकि लालू प्रसाद सबसे ज्यादा फायदे में रह सकते हैं. नीतीश कुमार पिछले सात साल से जदयू-भाजपा गंठबंधन सरकार के मुखिया रहे और राज्य में 1996 से ही दोनों दलों ने साथ मिल कर लोकसभा चुनाव लड़ा था. नीतीश कुमार उम्मीद कर रहे थे कि भाजपा से गंठबंधन टूटने के बाद मुसलिम मतदाताओं का उनकी पार्टी के पक्ष में ध्रुवीकरण होगा. उनके इस सोच का मुख्य कारण यह था कि उनकी सरकार ने मुसलमानों, खास कर पसमांदा मुसलमानों, के लिए कई कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की है. लेकिन विभिन्न इलाकों से मिल रहे संकेत यही इशारा करते हैं कि ज्यादातर मुसलिम मतदाता राजद-कांग्रेस गंठबंधन के पक्ष में एकजुट हो रहे हैं.
लालू प्रसाद के लिए खुश होने के कई कारण हैं. 2009 के आम चुनाव में राजद-लोजपा गंठबंधन की बड़ी पराजय के बाद उन्होंने मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए शायद ही कोई बड़ा कदम उठाया है. हाल में चारा घोटाले में वे जेल की सलाखों के पीछे भी जा चुके हैं. इसके बावजूद कांग्रेस के साथ गंठबंधन होने से राजद और कांग्रेस, दोनों को चुनावी लाभ की उम्मीद की जा रही है. जदयू से गंठबंधन टूटने के बाद भाजपा के पक्ष में मुसलिम मतों के ध्रुवीकरण की उम्मीद किसी को नहीं है.
अख्तरुल ईमान फैक्टर
अब जबकि किशनगंज में जदयू उम्मीदवार के मैदान से हटने के बाद मुसलिम मतदाताओं का रुझान राजद-कांग्रेस गंठबंधन की ओर बढ़ा है, नयी परिस्थिति में यादव मतदाताओं का रुझान भी राजद-कांग्रेस की ओर बढ़ता दिख रहा है. इस साल के शुरू में हुए सव्रे से संकेत मिल रहे थे कि राज्य के ज्यादातर यादव मतदाता भाजपा-लोजपा गंठबंधन को वोट दे सकते हैं. तब भाजपा की ओर से नंद किशोर यादव को बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में पेश करने का यादव मतदाताओं पर सकारात्मक असर दिख रहा था, लेकिन पिछले कुछ सप्ताह के दौरान परिस्थितियां बदलती दिख रही हैं. पिछले कुछ चुनावों के दौरान राजद के पक्ष में एकजुट होकर मतदान करनेवाले यादव मतदाताओं का रुझान फिर राजद-कांग्रेस गंठबंधन के पक्ष में दिख रहा है.
1990 के दौर में, जब राजद का उभार चरम पर था, राज्य के 75 फीसदी से अधिक यादव मतदाताओं ने लालू प्रसाद के पक्ष में मतदान किया था. राजद के बुरे दौर, यानी 2005 और 2010 के विधानसभा चुनावों और 2009 के आम चुनाव, में भी 60 फीसदी से अधिक यादव मतदाताओं ने राजद के पक्ष में वोट दिया था. इन तीन चुनावों में राजद के खराब प्रदर्शन की बड़ी वजह थी मुसलिम मतदाताओं का इससे छिटकना. राज्य में यादव वोटर करीब 17 फीसदी है. नयी परिस्थितियां इशारा कर रही हैं कि बिहार में मुसलिम-यादव (एम-वाइ) मतदाता फिर एकजुट होकर नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं. यदि यह मुमकिन हुआ, तो भाजपा-लोजपा गंठबंधन को बड़ा झटका लगना तय है.