बिहार में आयी बाढ़ क्षेत्रफल, हानि व पानी की दृष्टि से बहुत बड़ी, विकराल व भयावह हैं। राज्य सरकार राहत व बचाव पूरी तरह से विफल साबित हुई हैं, आपदा पूर्व तैयारी के दावे और आपदा न्यूनीकरण के सभी रोड मैप तो पहले ही असफल थे। सरकार अपने ही द्वारा तय मानक दर को लागू करने में असमर्थ साबित हो रही हैं। ऐसे बदहाल स्थिति में देश के प्रधानमंत्री द्वारा बाढ़ पीड़ितों के हवाई सर्वेक्षण के बाद सिर्फ 500 करोड़ की राशि का आवंटन बिहार के पीड़ितों के साथ मजाक है। जिसका जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) भर्त्सना करते हुए तत्काल तय मानक संचालन प्रक्रिया और मानक दर के अनुसार सभी तक राहत पहुँचाने की मांग करता हैं।
राज्य सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग के प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है कि राज्य के लगभग आधे जिलों के एक करोड़ इकहत्तर लाख से अधिक लोग बाढ़ से पीड़ित हैं। भारी पैमाने में लोगों की जाने गयी हैं पशु, घर, गृहस्थी की तबाही, फसलें, सड़क, पुल-पुलिया इत्यादि की अकूत बर्बादी हुई हैं। यह बर्बादी 2008 की कुसहा त्रासदी सी बहुत बड़ी हैं उस समय 5 जिलों में लगभग 40 लाख लोग प्रभावित थे जिसे तत्कालीन केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा घोषित किया था और एक हजार करोड़ से अधिक की राशि राहत कार्य के लिए दी थी जिस राशि में भी सभी पीड़ितों का राहत कार्य ठीक ढंग से नहीं हो पाया था यदि उसके अनुसार अभी आयी बाढ़ को बढ़ी महंगाई के मद्देनजर तुलना की जाए तो प्रधानमंत्री द्वारा दी गयी 500 करोड़ की राशि तो दक्षांश के बराबर सिर्फ खानापूर्ति लग रही है, ऐसे में भला कैसे राहत कार्य होगा। यह तो पीड़ितों के साथ घिनौना मजाक हैं।
बाढ़ आने के बाद पानी में घिरे अधिकांश पीड़ितों तक प्रशासन नहीं पहुँच पाया जो जोग जान बचाकर किसी ऊँचे स्थल पर गये उन तक किसी तरह एक दो समय खिचड़ी इत्यादि मुखिया के सहयोग से दी गयी, कही-कहीं सरकारी शिविर खोले गये परन्तु वहां भी मानक दर के अनुसार सुविधायें नदारद थी अनेक शिविर के तो सिर्फ बैनर थे और आकड़ों में संख्या दिखा दी गयी सामुदायिक रसोई का भी लगभग यही हाल था पारदर्शिता के अभाव में शिविरों और सामुदायिक रसोई के आकड़े सत्य से परे हैं। ऐसे विकट परिस्थिति में स्थानीय समुदाय व जनसंगठनों ने भरपूर मदद किया हैं परन्तु दुर्भाग्य हैं कि सरकार व प्रशासन, नागरिक संगठनों व स्थानीय समुदाय से संवाद करना भी मुनासिब नहीं समझा हैं।
चेहरा चमकाने की कोशिश
मुख्यमंत्री के शिविर निरीक्षण में उन्हीं शिविरों को दिखाया जाता हैं जिसे जिला प्रशासन द्वारा पूरी ताकत झोक कर एक दो जगह मॉडल स्तर पर बनाये जाते हैं जबकि सभी बाढ़ पीड़ितों को उनकी हालात पर छोड़ दिया जाता हैं यहाँ तक की दौरे के समय तो पशु शिविर भी चलने लगते हैं परन्तु मुख्यमंत्री के जाने के 24 घंटे के अंदर अधिकांश शिविरों को बंद कर दिया जाता है। पानी घटने के बाद जो लोग घरों को लौट रहें हैं वहां समय से दवाओं का छिड़काव व खाने के पैकेट नहीं मिल पाए हैं। क्षतिपूर्ति व अन्य सहाय्य अनुदान वितरण की प्रक्रियाओं में देरी हो रही हैं। यदि बाढ़ पूर्व सूचना ठीक ढंग से प्रसारित होती तो तबाही और क्षति को कम किया जा सकता था सरकारी मृतकों के आकड़ों से अधिक संख्या में 400 से ज्यादा लोगों की मृत्यु हुई जिसको प्रशासन के संरक्षण में अररिया जिले मीरगंज पुल से गाड़ियों से लाकर लाशों को फेंकने की तस्वीरें तो मानवता को शर्मसार करती हैं। अररिया जिला के लक्ष्मीपुर पंचायत (कुर्साकांटा) का घर डूब गया। उनके घर में कुछ लाशें तैरती हुई घुस गयी। वहाँ के ग्रामीण बताते है हैं कि अभी तक कोई राहत नहीं मिला। अररिया जिला के पलासी प्रखंड के चहटपुर पंचायत के मो0 अयूब कहते हैं कि उनके टोला के लोग पास के स्कूल में शरण लिए हुए है, लेकिन कोई सरकारी सहायता उन्हें नहीं मिली। पिछले साल बाढ़ क्षति के लिए सरकार की तरफ से 6000 रु आवंटित हुआ था। उस सूची में काफी गड़बड़ी थी, पैसा गलत व्यक्तियों को दिया गया। उस मामले को लेकर उन्होंने सीओ के कार्यालय में धरना दिया था। वह पैसा आज तक नहीं मिला और यह विपदा आ गयी। यदि मानक संचालन प्रक्रिया के तहत आपदा पूर्व तैयारियां हुई होती तो बचाव व राहत में यह सरकारी विफलता नहीं दिखती।
इस वर्ष बाढ़ के कारणों और सरकारी विफलता को ढकने के लिए यह संगठित प्रचार किया जा रहा हैं कि यह पानी चीन ने भारत के युद्ध से डरकर छोड़ा है या नेपाल ने छोड़ा हैं जबकि यह पूरी तरह झूठ व अफवाह हैं। जबकि इस वर्ष की बाढ़ के कारण उत्तर बिहार की सभी छोटी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में हुई तेज वर्षा और उसके जल निकासी मार्ग में अवरोधक के रूप में खड़ी विकास की संरचनाएं हैं जो पानी के निकलने में बाधक बनी और वह पानी तेज गति से अनेक तटबंध, नहर, सड़क, पुल-पुलिया इत्यादि को तोड़ते हुए तबाही मचाया। बिहार जैसे हिमालय की समीप में बसे राज्य को मौसम बदलाव के दौर में वर्षा के बदलते पैटर्न के अनुसार अपनी जल निकासी की संरचना विकसित करना तो दूर अभी पुराने जल निकासी मार्गों प भारी अतिक्रमण और सरकारी उपेक्षा के शिकार है।
मांगें
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) मांग करता है कि सरकार मानक दर और SOP के अनुसार सभी राहत कार्य को तेज करते हुए सभी पीड़ितों तक पहुंचायें। घर लौट रहे लोगों तक वहां छिड़काव, मुफ्त में अनाज और अन्य सहाय्य का भुगतान, पशुओं के लिए चारा इत्यादि की व्यवस्था अविलम्ब कराई जाए। सभी कार्यो में पारदर्शिता बरती जाए। सरकार हुई तबाही के पुनर्वास की योजना बनाते हुए सभी किसानों के कर्ज की माफ़ी करें और बाढ़ आने के कारणों अध्ययन कराकर उसके उपाय के लिए ठोस योजना बनाये साथ ही आपदा पूर्व तैयारी, व सूचना तंत्र के विफलता के दोषियों सहित राहत कार्य में कोताही व भ्रष्टाचार में संलिप्त कर्मियों / पदाधिकारियों पर कठोर कार्रवाई करें। समन्वय ने मोदी सरकार के साथ सत्ता में बैठे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उनके कथन कि “खजाने पर आपदा पीड़ितों का पहला अधिकार हैं” याद दिलाते हुए इसे जुमला बनने से बचाने का आग्रह किया और कहा की राज्य के पीड़ितों के लिए उन्हें केंद्र सरकार से राहत व पुनर्वास के हक़ के पैसे की मांग मजबूती से करनी चाहिए।