राजनीति में किसी नेता के चेहरे के पीछे का चेहरा अब बहुत मायने नहीं रखता लेकिन राजनीत के पटल पर केजरीवाल ने जो अपना चेहरा पेश किया था अब उस चेहरे के पीछे का चेहरा उजागर होने लगा है.
इर्शादुल हक, सम्पादक, नौकरशाही डॉट इन
अरविंद केजरीवाल ने भारतीय राजनीति में अपनी पहचान स्तापित कर ली है. स्वराज, भ्रष्टाचार, आम आदमी के दर्द और जनता से किये वायदों को पूरा करने के का साहस दिखाने की मिसाल को उन्होंने अपनी राजनीति की बुनियाद बनायी. नतीजा हुआ कि केजरीवाल को लोगों ने सर आंखों पर बिठा लिया. लेकिन केजरीवाल पर पैनी नजर रखने वाले शुरू से समझते रहे हैं कि उनका चाहरा सार्वजनिक मंचों पर जो होता है, वहीं रणनीतिक बनाने वाले कमरे में नहीं होता. पिछले दो ढ़ाई साल में केजरीवाल ने समय-समय पर यह भी साबित किया है कि वह अपने कई छोटे-बड़े सहयोगियों का यूज ऐंड थ्रो करने में चतुर साबित हुए हैं.
यूज ऐंड थ्रो की नीति
अगर गौर से देखें तो केजरीवाल ने अपने गुरू अन्ना हजारे का भी जबर्दस्त यूज किया और जब अपनी पहचान बनी तो उनके नेतृत्व से अलग हो कर, अन्ना की बदौलत मिली पहचान को भुनाना शुरू कर दिया. आम आदमी पार्टी बनाने के बाद केजरीवाल को योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण परिवार ने रणनीति से लेकर हर स्तर पर मदद की. भूषण परिवार तो उन चंद पहले लोगों में से है जिन्होंने केजरीवाल को पहला चंदा देकर संगठन को खड़ा किया.लेकिन केजरीवाल, अन्य पार्टी के नेताओं की तरह अपनी पार्टी में ऐसा कोई चेहरा नहीं स्वीकार करना चाहते जो उनके लिए चुनौती बन सके.
दिल्ली की गद्दी पर मजबूत पकड़ बना लेने के बाद केजरीवाल ने संगठन को अपनी गिरफ्त में कर लेने की नीति के तहत जो पहली शुरुआत की वह रही योगेंद्र यादव और प्रशांत की नाकों में नकले डालना. केजरी वाल ने एक चिट्टी में लगभग धमकाते हुए लिखा कि वह इन दोनों के रहते काम नहीं कर सकते. इसे लोगों ने तानाशाही रवैये के तौर पर देखा.
मुसलमानों में केजरीवाल का चेहरा
लेकिन जब से योगेंद्र और प्रशांत भूषण का कद आम आदमी में कम किया गया है तब से स्टिंग आप्रेशनों का दौर चल पड़ा है. ताजा स्टिंग आप्रेशन तो मुसलमानों के प्रति केजरीवाल की सोच को उजागर करता है. इस टेप में अरविंद यह कहते हुए सुने जा रहे हैं कि दिल्ली असेम्बली चुनाव मों मुसलमानों को 10 सीटों पर टिकट देने की कोई जरूरत ही नहीं है. स्टिंग में यह खुलासा होता है जिसमें केजरीवाल यह कहते हुए पाये जाते हैं कि मुसलमानों को चुनाव में ज्यादा टिकट देने की जरूरत इसलिए नहीं क्योंकि वह मोदी के डर से खुद ही आप को वोट देंगे, तो इससे केजरीवाल के चेहरे से नकाब हटाने वाली बात कम, और भारतीय राजनीति का यथार्थ ज्यादा दिखता है.
आखिर यह सब जानते हैं कि मुसलमान, भारतीय राजनीति की विकल्पहीन फैक्टर हैं, जिनके वोट माले मुफ्त और दिल ए बेरहम की तरह झोली में पड़ते हैं. केजरी ने भी, मुलायम, लालू , ममता की तरह इस सच्चाई को जान लिया है.
याद रखिए मुस्लिम नेतृत्व, भारतीय राजनीति में मजहबी बुनियाद पर कभी ताकतवर नहीं हो सकता. मुसलमान महजहबी बुनियाद पर वोट करने के बजाये नेतृत्व विकास की तरफ जबतक आगे नहीं बढेंगे तबतक उनकी हैसियत ऐसी ही रहेगी. मतलब मुसलमानों के लिए ओवैसी टाइप राजनीति जितनी बुरी है, उतना ही नुकसानदेह डर के वोट करना है. राजनीति में भीखमंगई से काम नहीं चलता. नेतृत्व सशक्त होगा तो ही भला होगा.
नैतिकता का सवाल
जहां तक केजरीवाल के नैतिक राजनीति की बात है तो अभी जो टेप सामने आये हैं उसमें वह पिछली बार सत्ता से इस्तीफा देने के बाद कांग्रेस के छह एमएलए को लालच दे कर अपनी तरफ करके दोबारा सरकार बनाने की बात कर रहे हैं. केजरीवाल का यह मौलिक चेहरा लगता है जो सार्वजनिक मंचों के चेहरे से बिल्कुल अलग है.
अभी और भी कई चेहरे सामने आयेंगे. बस इंतजार कीजिए
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