आनंद बाज़ार पत्रिका समूह की ठीक-ठाक छवि रही है। हालाँकि व्यावसायिकता उसमें कूट-कूटकर भरी हुई है, मगर इसके बावजूद वह एक स्तर बनाए रखता था। कम से कम सनसनीखेज़, उन्मादी एवं अधविश्वासी पत्रकारिता से तो वह परहेज करके चलता था।
मुकेश कुमार, वाया फेसबुक
मगर अब उसके मालिकान एकदम से औंधे मुँह गिरते दिख रहे हैं। एबीपी न्यूज़ का जो हाल पिछले दो-तीन महीनों में हुआ है उसे देखकर लगता है कि उसने उसके संपादकों पर गिरती टीआरपी को थामने के लिए ऐसा दबाव बनाया है जिससे वे टेबलॉयड पत्रकारिता का दामन थामने के लिए विवश हो गए हैं। देशभक्ति के नाम पर वह युद्धोन्मादी होता दिख रहा है, सनसनी अब उसका एक कार्यक्रम भर नहीं रहा, बल्कि वह उसके पूरे चरित्र का हिस्सा बन गई है और कई बार तो अर्धसत्यों को भी वह सच की तरह पेश करता हुआ दिखलाई देने लगा है।
निर्मल बाबा प्रकरण के बाद उसने ज्योतिष के कार्यक्रम बंद करने की घोषणा की थी, मगर अब वे फिर से सजने लगे हैं।
पहले एबीपी ऐसा नहीं था। उसके कंटेंट में गंभीरता दिखती थी और वह लगातार नए-नए प्रयोग भी करता रहता था। वास्तव में हिंदी चैनलों में वही सबसे अच्छा हुआ करता था। उसकी एक विशिष्ट पहचान हुआ करती थी।
क्या ये मोदी राज का प्रभाव है जो सब तरफ दिख रहा है या फिर आनंद बाज़ार समूह को लग रहा है कि प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए नीचे गिरना ज़रूरी है? हो सकता है दोनों बातें सच हों मगर है ये बुरा ही, उसके लिए भी और मीडिया के लिए भी।
हालाँकि यहाँ ये सवाल भी बनता है कि जब सब कीचड़ में गुलाटियाँ मार रहे हों तो एबीपी को ही क्यों खड़ा किया जाए?