यह जस्टिस डिनायड का मामला है. यानी 58 दलितों, महिलाओं और बच्चों का संहार हुआ पर उनके दोषी कौन हैं, ये किसी को नहीं मालूम. जो आरोपी थे, वे बरी हो गये. यानी अदालत की नजर में वे हत्यारे नहीं हैं. फिर कौन है हत्यारा? क्या बाथे के सभी 59 दलितों, महिलाओं और बच्चों ने खुद ही अपने सीने और अपनी खोपड़ियों में गोली मार ली थी?
इर्शादुल हक
ऐसी व्यवस्था जो अदालतों से नरसंहारियों को जसा न दिला सके वह निर्लज्ज और नाकारी है. वह इंसाफपसंद नहीं है. जो व्यवस्था अपने नागरिकों को इंसाफ न दिलाये उस व्यवस्था में शांति की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
सवाल सिर्फ यह नहीं है कि जिन 26 लोगों को निचली अदालत ने एक दिसम्बर 1997 को घटित बाथे नरसंहार का दोषी करार देते हुए फांसी और उम्रकैद की सजा सुनायी थी, पर पटना हाई कोर्ट ने उन्हें निर्दोष साबित कर दिया बल्कि सवाल यह है कि अगर वे निर्दोष हैं तो फिर दोषी कौनहै? विडम्बना यह है कि अदालत को उन छब्बीसों के खिलाफ सुबूत नहीं मिले. 16 साल में जो व्यवस्था कातिलों के खिलाफ सुबूत न जुटा पाये, उस व्यस्था को कहीं से सभ्य और लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता.यह पूरी तरह से अंधर नगरी है.
एक गंभीर प्रश्न हमारी अदालती सिस्टम का भी है. पटना उच्च न्यायालय में दायर याचिका की सुनवाई के बाद न्यायाधीश बीएन सिन्हा और एके लाल की खंडपीठ ने साक्ष्य के अभाव में सभी 26 अभियुक्तों को बरी कर दिया. पटना की व्यवहार न्यायालय के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश विजय प्रकाश मिश्र ने इस मामले में वर्ष 2010 में 26 लोगों को दोषी ठहराते हुए 16 को फांसी तथा 10 को उम्र कैद की सजा सुनाई थी. चलिए अदालती फैसले पर बिना टिप्पणी किये हुए चंद सवाल पूछते हैं.
अदालतों को हक है कि वह चाहे तो किसी मामले में खुद बखुद संज्ञान ले कर मामले को देख सकती है. अब अदालत ने इन 26 लोगों को साजक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया. मतलब ये छब्बीस हत्यारे नहीं हैं.पर इस बात के लिए भी क्या साक्ष्य की जरूरत है कि 59 लोगों की हत्या हुई? जब यह साबित है कि 59 लोगों की हत्या हुई तो उनके हत्यारे को कौन खोजेगा? उन्हें कौन सजा दिलयेगा?
पटना हाई कोर्ट में इस बात के लिए अपील की गयी थी कि, जिन 26 लोगों को हत्या का मुजरिम करार दिया गया था, वे दोषी नहीं है. और अदालत को यही साबित करना था कि वे दोषी हैं या नहीं. ऊपरी अदालत में यह मामला तो गया ही नहीं कि बाथे नरसंहार के दोषी कौन हैं, उनकी पहचान की जाये. क्या अदालत इस मामले को इस एंगिल से देखेगी कि अगर यह दोषी नहीं तो फिर दोषी कौन हैं, और उन्हें पकड़ा जाये, उन्हें सजा दी जाये?
मत भूलिए कि जिस लोकतांत्रिक समाज में न्यायिक प्रणाली, नौकरशाही और राजनितक नेतृत्व के होते हुए दोषियों को खोजा न जा सके, उन्हें सजा न दिलायी जा सके उस समाज और उस व्यसव्था के फ्लॉप होने का खतरा है. ऐसी व्यवस्था जिस पर मजलूमों को भरोसा न हो वह दरअसल अंग्रेजों के गुलामी वाली व्यवस्था से भी खतरनाक है.
Comments are closed.